Saturday, April 25, 2009

मिला था कल जो हमें,

मिला था कल जो हमें बहरे - बेकरां की तरहं
भटक रहा है वो अब दशत में फुगाँ क तरहं।

हमारे बाद ज़माने में जुस्तजू वालो,
करोगे याद हमें सई ये रायगाँ की तरहं।

हम उसकी आँख में ज़र्रे से भी हकीर सही,
हम उसके दिल में खटकते हैं आस्मां की तरहं।

वो कैसे कैसे गुलामी के दौर याद आए,
मिला जो हमसे कोई शख्स हुक्मरां की तरहं।

मेरी खुदी का  स्वयंवर भी क्या स्वयंवर था
मेरी ही ज़ात ने  तोड़ा मुझे कमां की तरहं 

उसी के नाम की तख्ती थी सब किवाडों पर,
जो उठ चुका था किराये पे ख़ुद मकां की तरहाँ।

अब एक बर्फ का सहरा है और हम तलअत,
सुलग रहे हैं समन्दर की दास्ताँ की तरहं।
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दिल कहाँ दरिया हुआ

दिल कहाँ दरिया हुआ, दीवार कब साबित हुआ,
प्यास आंखों में उतर आयी तो सब साबित हुआ।

मैं तो मिट्टी हो गया उसके लहू की बूँद पर,
वो मेरी मिट्टी से यूँ उट्ठा के रब साबित हुआ।

रात की बारिश ने धो डाले सभी के इश्तहार,
कौन कितने पानियों में है ये अब साबित हुआ।

लोग फिर काले दिनों के नाम ख़त लिखने लगे,
धुप से उनका तआल्लुक, बेसबब साबित हुआ।

हम चुरा लाये थे माबद से ख़ुदा सुन कर जिसे,
वो किसी टूटे हुए बुत का अक़ब साबित हुआ।

रंग तक ला कर हुआ महफ़िल से ख़ुद ही मुनहरिफ़,
कौन तलअत सा भी यारो ! बे अदब साबित हुआ।
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न जागने की इजाज़त न हमें सोने की,

न जागने की इजाज़त न हमें सोने की,
कहाँ से बात उठायें अज़ान होने की।

तमाम घाट के पानी पे फिर गई काई,
जब आयी बारी हमारी लिबास धोने की।

हम उसके शहर के रंगों से चुप गुज़र जाते,
यह किसने बात चला दी हमें भिगोने की।

कहाँ धुँए की परस्तिश में जा फंसे यारो,
यही तो रुत थी ख़यालों में आग बोने की।

हसारे ज़ात के जिन्दानियों! उठो ! जागो,
यहाँ किसी को इजाज़त नहीं है सोने की।

अभी  तो शिव के गले  से वो विष नहीं उतरा
तुम्हें पड़ी है समंदर को फिर बिलोने की ।
वो मेरी पीठ पर रख कर मेरा ही सर बोला,
किसे पड़ी है किसी की सलीब ढोने की 

मैं लम्स लम्स बिखरता चला गया तलअत,
मिली जो रात उसे रूह में समोने की।
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देखो तो हमें दिल ने

देखो तो हमें दिल ने कैसी ये सज़ा दी है,
आइना वहीं पर है दीवार हटा दी है।

अल्फाज़ के जादू ने सर काट दिया बन का,
तहरीर यह मिटटी की किस शै ने जला दी है।

छूते ही तुम्हें हम तो अन्दर से हुए खाली,
बर्तन ने कहीं यूँ भी पानी को सदा दी है।

अब लम्स अंधेरे की ईंटों का है मुत्कल्लम,
नाखूं ने मेरे बढ़ कर हर बात बढ़ा दी है।

लग जयेंगी आखें भी इक रोज़ किनारे से,
खुशबू तो तेर ख़त की दरिया में बहा दी है।
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जब भी हम कुछ देर सुस्ताने लगे हैं.

जब भी हम कुछ देर सुस्ताने लगे हैं,
शहर पर आसेब मंडराने लगे हैं।

किस का साया आ पड़ा सिहने चमन पर,
क्यारी क्यारी फूल मुरझाने लगे हैं।

आप की उजली हंसी जब भी सुनी है 
मंदिरों  के नाम याद आने लगे हैं 

अब यहाँ कोई नहीं सुनता किसी की,
अपना अपना राग सब गाने लगे हैं।

किस ने चौराहे पे क्या टोना किया है,
आते जाते लोग चिल्लाने लगे हैं।

फिर ज़मीं की नाफ़ टेढी हो चली है,
फिर समंदर झूम कर गाने लगे हैं।

आस्मां लोहे का छल्ला है जिसे हम,
हर छ्टी उंगली में पहनाने लगे हैं।

नींद अब तलत हमें आए न आय,
अधखुली आंखों में ख्वाब आने लगे हैं।
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पत्थर से लम्स फूल से

पत्थर से लम्स फूल से खुशबू निकाल दे,
बाकी जो कुछ बचे वो मेरे नाम डाल दे।

क्या फ़र्क पानियों में है इसका न रख ख़याल,
दरिया की नेकियों को समंदर में डाल दे।

सम्तों के रुख पलट के सितारों से बात कर,
तिरछा पड़े जवाब तो सीधा सवाल दे।

नारा बना खड़ा हूँ मैं कब से ज़मीर का,
कोई मुझे भी आके हवा में उछाल दे।

बुकशेल्फ़ से कमीज़ का रिश्ता तुझे बताएं,
लेकिन ज़रा गले से तू टाई निकाल दे।

पूछे जो कोई कौन है तलत जुबां न खोल,
मिटटी ज़रा सी लेके हवा में उछाल दे।
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