कौन पकाए उनके नक इरादों को,
कच्ची शोहरत मार गयी शहज़ादों को।
रंग बिरंगी कीलें उगीं हवाओं में,
दिन जब सौंपा हमने तेरे वादों को।
अब शीशे के ऐसे रौशनदान कहाँ,
दिल में जो रख लें पत्थर सी यादों को।
जाने कैसे वक्त नदी का पुल टूटा,
लौट लिए सब पानी की फरियादों को,
साहिल काला जादू सब्ज़ हवाओं का,
नीले खेल सिखाये सुर्ख़ मुरादों को।
तख्ती तैर रही है काले पानी पर,
तलअत खाक मिले इज्ज़त उस्तादों को।
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Tuesday, May 5, 2009
Monday, May 4, 2009
उसे भी चाहनां घर से भी कामरां होना,
उसे भी चाहना घर से भी कामरां होना,
कहाँ चराग़ सा जलना कहाँ धुआं होना।
लहू में जाग उठ्ठी है फिर आतिशे इम्कां
हरेक ज़ख्म को लाज़िम है जाविदां होना।
हम एक बुत की परस्तिश में यूँ हुए पत्थर,
ज़बीं का नाम हुआ संगे आसतां होना।
नदी की राह में सहरा न था कोई वरना,
किसे था ज़र्फ़ समंदर की दास्ताँ होना।
मेरा तो होना न होना सब एक सा ठहरा,
हुआ है खूब मगर आप का यहाँ होना।
हमें भी छू के गुज़रती तो है हवा लेकिन,
यह हाथ भूल चुके हैं अब उंगलियाँ होना,
चटख गया है बहारों का आसमाँ तलअत,
गुलों ने सीख लिया जब से तितलियाँ होना।
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बदन उसका अगर चेहरा नहीं है,
बदन उसका अगर चेहरा नहीं है,
तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है।
दरख्तों पर वही पत्ते हैं बाकी,
के जिनका धूप से रिश्ता नहीं है।
वहां पहुँचा हूँ तुमसे बात करने,
जहाँ आवाज़ को रस्ता नहीं है।
सभी चेहरे मकम्मल हो चुके हैं ,
कोई अहसास अब तन्हा नहीं है।
वाही रफ़्तार है तलअत हवा की,
मगर बादल का वह टुकडा नहीं है।
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पूछते हो तुम की हम पर
पूछते हो तुम के हम पर आस्मां कैसा रहा,
प्यास पर गोया कि पानी का निशां कैसा रहा।
एक चौखट चार ईंटों पर खड़ी हिलती रही,
सर झुकाने को हमारा आस्तां कैसा रहा।
अपनी अपनी ज़िंदगी थी और अपनी अपनी मौत,
अब के अपने शहर में अमनों अमां कैसा रहा।
मुद्दतों से हूँ ज़माने से किनारा कश मगर,
तुम जो मिल जाओ तो पूछूं सब कहाँ कैसा रहा।
रात अपने चोर दरवाज़े पे जब अस्तक हुई,
इक हयूला सा हमारे दरम्यां कैसा रहा।
हासिले सहरा नवरदी और कुछ होता तो क्यूं?
और इक मंज़र पसे मन्ज़र निहाँ कैसा रहा।
हर नफस यूँ तो अज़ल से था अबद का इख्तिलात,
इक शिकस्ता पल बिखर कर दरमियाँ कैसा रहा।
ज़ह्न से पैदा हैं तलअत नित नए सूरज ख़्याल,
धूप कैसी भी थी लेकिन सायेबां कैसा रहा।
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न किस्त किस्त में यूँ
न किस्त किस्त में यूँ दांव पर लगा मुझको,
मैं तुझको हार चुका हूँ तू हार जा मुझको।
सुलग रहा हूँ अज़ल से यूं ही ज़माने में,
है तेरे पास कोई अश्क तो बुझा मुझको।
अजीब रंग थे उसकी ज़हीन आंखों में,
वो इक नज़र में कई बार पड़ गया मुझको।
मेरे वुजूद के लाखों सुबूत थे लेकिन,
कोई दिमाग़ भी साबित न कर सका मुझको।
न पूछ यास का आलम की तेरी दुनिया में,
तेरा ख्याल भी जिंदा न रख सका मुझको।
न आँख आँख रही है न दिल ही दिल तलअत,
किसी के अह्द ने पत्थर बना दिया मुझको।
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जब कोई सर किसी
जब कोई सर किसी दीवार से टकराता है,
अपना टूटा हुआ बुत मुझको नज़र आता है।
ख़ूब निस्बत है बहारों से मेरी वह्शत को,
फूल खिलते हैं तो दामन का ख़्याल आता है।
तुम जब आहिस्ता से लब खोल के हंस देते हो,
एक नग्मां मेरे अहसास में घुल जाता है।
कितने प्यारे हैं तेरे नाम के दो सादा हरफ़,
दिल जिन्हें गोशा-ए-तन्हाई में दोहराता है।
आप से कोई तआरुफ़ तो नहीं है लेकिन,
आप को देख के कुछ याद सा आ जाता है।
हाय क्या जानिए किस हाल में होगा कोई,
आज रह रह के जो दिल इस तरह घबराता है।
आप कहते हैं तो जी लेता है तलअत वरना,
कौन कमबख्त यहाँ साँस भी ले पाता है।
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