Saturday, July 4, 2009

इंतज़ार

वोह सारे खुश्क पत्ते
जो हमारे पाँव के नीचे
कुचल कर चीख उठठे थे,
मुझे उनकी सदायें,
नज़्म करने के लिए कहकर
गजरदम की गयीं, तुम
शाम तक वापिस नहीं लौटीं
तो मैं दिन भर की यह लिख्खी हुयी नज़्में
भला किसको सुनाऊँगा?
किसे कैसे बताऊंगा ?
कि मौसम खुशक पत्तों का नही
फूलों की आमद है।
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शायरी

मैं जब जब
अपने अन्दर की आंखें खोल रहा होता हूँ,
चारों ओर
मुझे बस एक उसी का रूप नज़र आता है,
नहीं चाहता कुछ भी कहना
लेकिन एक अजीब कैफ़ीय्यत,
साँस-साँस इज़हारे तअल्लुक
यादें, आंसू, लोग, ज़मीं, आकाश, सितारे
जैसे कोई बहरे फ़ना में
आलम आलम हाथ पसारे,
और मदद के लिए पुकारे
और वह सब जो
पीछे छूट चुका होता है
या आगे आने वाला होता है
जाने कैसे?
सन्नाटे की दीवारों को तोड़ के
अपनी आप ज़बां में ढल जाता है,
दूर अन्देरे की घाटी में
एक दिया सा जल जाता है।

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लफ्ज़ की बुनियाद

चुप के यह कैफियत
सिर्फ़ अल्फाज़, जैसे भी
जो भी, जहाँ से भी आयें, सुनें!
अपनी अओंखों के नज़दीक लाकर
उन्हें, देख पायें
कहीं से ज़रा छू सकें ।
और तब हम से शायद ज़मानों-मकां के लिए
इक नया लफ्ज़ इजाद हो
जो की आइन्दा सोचों की बुनियाद हो,
और मुमकिन है यह भी हामी कोई
गुमशुदा याद हो।

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शहर, आइना तुम और मैं

तुम्हें, अपने आलावा शहर में
जब कोई शै अच्छी नहीं लगती,
तुम्हें जब कोई शै अच्छी नहीं लगती,
तो मैं तुमसे,
तुम्हारे आइने की बात कहता हूँ,
के हर लम्हा ख़ुद उसके पास रहता हूँ ।
मगर तुम हो कि अपने आइने को भी
उठा कर
भीड़ के चेहरे से अक्सर जोड़ देते हो,
अब ऐसे में
अगर तुमसे कोई पूछे
"सिवा इक लज्ज़ते दर्दे निहाँ
तुम किस के वाकिफ हो ?"
तो शायद रो पड़ो ,
या अन्दर अन्दर टूट जाओगे
कि मैं जो हर कहीं
मौजूदो न मौजूद रहता हूँ
(फ़कत ऐसे ही आलम के लिए हर आँख से मफ़्कूद रहता हूँ)
तुम्हारे आंसुओं के दरमियाँ से
जज़्ब कर के जा चुका हूँगा,
तुम्हारे आइने को साफ़ रखने की गरज़ से
मुझ को जो कहना था सब समझा चुका हूँगा।

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सुनहरी हर्फ़

कभी ख़ुद को मकम्म्ल तौर पर
खाली अगर महसूस कर पाओ !
तो मैं तुमको तुम्हारी शख्सियत के पार ले जाऊं ।
तुम्हारी शख्सियत जिसने तुम्हें,
बीमार आवाजों के जंगल में,
भटकने के लिए हर दौर मैं मजबूर सा पाया,
मगर फिर भी कहीं कुछ था
कि जो तुमको बचा लाया।
तुम्हारी शख्सियत दर अस्ल
मिटटी का खिलौना है,
जो अपनी आप मैं लज्ज़्त की,
लम्हदूद वुसअत को समोना है
मगर फिर भी कहीं इक बोझ ढोना है।

कँवल, कीचड
बज़ाहर दो अलग कैफीयातें हैं
एक पानी की ,
मगर तुमने कभी उसको भी जाना है,
कि जिसने हर कदम
दोनों की छुप कर बागवानी की।

वही इक रब्ते - बाहम
तुम को मुझसे, मुझको उससे
और उसे सब से मिलाता है;
ये वो दरिया है जो अक्सर
बयक लम्हा हज़ार इतराफ़ लहराते हुए
बहता बहाता है।

लिहाज़ा ! आज मैं उस रब्ते बाहम सा
तुम्हारे सामने हूँ, और कहता हूँ,
कि यूँ बीमार आवाजों के जंगल में
तुम्हारा सुग्बुगाना
कौन से हर्फे नवां का नाम पायेगा,
वो सब जोशे नम
जो दश्ते इमकान की अमानत है
अगर अपनी तबीयत से हटा
तो बिल्यकीं बेकार जाएगा ।

सुनहरी हर्फ़ की जागी हुयी आहट को पहचानो
तो मैं तुमको तुम्हारी शख्सियत के पार ले जाऊं।

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Sunday, June 28, 2009

आओ वापिस चलें

तुम वही लोग हो,
मुझ को मालूम है उम वही लोग हो,
जिन के अजदाद की शाहरगों का लहू
मुद्दतों इस गुलिस्तान को सींचा किया,
मुद्दतों की गुलामी की जंजीरों को
जिन के अजदाद ने तोड़ कर रख दिया ।

तुम वही हो जिन के दिल में कभी
इत्तहाद ओ अख्वत के जज़्बात थे
हर कड़ी वक्त पर जो वतन की खुदी के मुहाफिज़ रहे
जिन की पेशानियों का पसीना सदा
खिदमते कौम में सर्फ़ होता रहा।
जिनकी जिंदा दिली
जिन की सादा दिली,
हर तरहां की सियासत से बाला रही।
तुम वही हो कि जिनकी लुग़त में कभी
बरबरीयत कोई लफ्ज़ था ही नही।

मुझ को मालूम है,
ये जो सड़कों पर बिखरा हुआ लहू
यह जो माहौल दहशत ज़दा है यहाँ
यह जो गलियों में है सोग छाया हुआ,
यह जो आकाश को छू रहा है धुंआ
उठ रही हैं जो लपटें वहां आग की
यह सभी कुछ तुम्हारे किए से नही
इस के पीछे किसी और का हाथ है।

लेकिन ऐ दोस्तों
तुम ने सोचा भी है?, तुम ने जाना भी है?
इन सब एमाल से, ऐसे किरदार से
अपनी मंजिल की जानिब रवां कौम को
तुम ने लाकर कहाँ से कहाँ रख दिया ?

यह थकन, यह उदासी, यह पज़्मुर्दगी,
गर्द आलूद चेहरों की धुंधली ज़या,
कौम के ताज़ा दम होने के वक्त पर
तुम ने यह क्या किया?
हाय ! यह क्या किया??
यह कोई वक्त था? आपसी बैर का?

खैर अब तक तो जो सो हुआ,
याद रखने की अब से बस इक बात है।
कोई भी वक्त हो कोई भी दौर हो,
मुल्क हर फिरका ओ फर्द से है बड़ा!
और इसके आलावा भे ऐ दोस्तों
आदमी तो फरिश्तों की औलाद है
उसका शैतान बनना मुनासिब नही।

चौक, बाज़ार, गलियां, दुकानें
सभी शाह राहें दफातर मिलें,
ज़ंग खाती हुयी रेलों की पटरियां,
कारखानों की दम तोड़ती चिमनियाँ,
आलमें यास में सर गरां खैतियाँ
आदमी और धरती के पाकीजा रिश्ते की कसमें
सरों पर उठाये हुए, हर कदम पर सदा दे रही हैं तुम्हें!
आओ वापिस चले, आओ वापिस चले।
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कपिल वास्तु का राजहंस

(आंजहानी श्रीमती इंदिरा गांधी की शहादत के बाद भारत के नाम)

तुम इक तयशुदा रास्ते पर थे लेकिन,
लगातार यक्सा बलंदी पे उड़ना खतरनाक था,
और तुम अपनी परवाज़ में इस कदर मुब्तला हो चुके थे
कि सम्तों की पहचान के साथ ही साथ दूरी का अहसास भी खो चुके थे
बयक वक्त उस कैफियत में तुम्हारा
कई आलमों से गुज़र हो रहा था,
मगर तुमने सोचा न था सामने से
उफ़ुक दर उफ़ुक आइना आइना मुख्तसर हो रहा था,

तभी मैं तुम्हें रोक कर कुछ कहूं
पेश्तर इसके इक तीर आकर तुम्हारे परों में समाया
शिकारी तुम्हारे तअकुब में भागा,
बहुत दूर तक भाग कर साथ आया,
फ़ज़ा में उसी तीर की अभी तक सनसनाहट हेई तारी,
कि जिस से बंधा हांफता है शिकारी ।
बलंदी से गिरता हुआ कतरा कतरा लहू कौन रोके ?
ज़मीं फिर भी शाना ब शाना तुम्हे
अपनी आगोश का वास्ता दे रही है
"उतर आओ ! अब और उड़ना मुनासिब नही"
यह सदा दे रही है।

मगर तीर की नोक पर यूँ टिके
जान के खौफ को तुम मयस्सर न होना।
यहाँ से ज़रा दूर नीचे खड़ा
वरना सिद्धार्थ तुम को नही पा सकेगा
परों से तुम्हारे वो जब तक
न इस तीर तो खेंच कर अपनी हाथों से निकाले
अहिंसा की उस को नज़र कौन देगा?
कपिलवस्तु का शहजादा,
बिलाखिर
यहीं से निकल कर तो गौतम बनेगा !

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कबूतरों की अर्ज़दाश्त

पतंगबाजों नवाबज़ादो
यह लखनऊ है,
यहाँ की तहज़ीब दोस्तों !
इक तुम्हारी मोरास ही नही है
हमारा भी नाम
इस की तारिख में लिखा है।

गए वो शाही जो हम गरीबों को
आए दिन नोच खा रहे थे
गए शिकारी जो नित नए जाल के ज़रिये
यहाँ वहां सब को उंगली उंगली नचा रहे थे।
मगर हमारी उड़ान भरने की हर सयी पर
हज़ार तरहं की बंदिशें आज भी लगी हैं
मगर जो एक आस्मां हमारे लिए बना था
वो रफ्ता रफ्ता सिमट रहा है
कि आदमी आदमी के हाथों
पतंगबाजी में कट रहा है।

हमारा क्या और हमारी परवाज़ की
फ़ज़ाओं पे दस्तरस क्या?
मगर वो सब लोग जो हमें
अमन के पयंबर सा कह गए हैं
न जाने किस राह रह गए हैं।
हमारे डेरे भी उन बुजुर्गों के साथ ही
वक्त की नदी के पार बह गए हैं।

नयी पुरानी सभी तरहं की इमारतों में
हम इन दिनों एक साथ जीने की
कोशिशों में लगे हुए है।

हमारा सब रंगों नस्ल का इम्तियाज़ भी,
कब का मिट चुका है,
कि हम फ़कत आदमी के दुःख में
उदास आखों जागे हुए हैं ।

कोई इलाका हो, शहर हो मुल्क हो या जज़ीरा
हमारा पैगाम तो सदा अमनो - अश्ती था,
है और रहेगा।
हमारा हर कहब आदमी की
सलामती के लिए बना है बना रहेगा।

हमारा जंगल से कुछ नही वास्ता
अगर हो भी तो अमे इल्म है
कि हम कुर्रा ऐ ज़मीं पर बगैर इन्सां कहीं भी ज़िंदा न रह सकेंगे।
हमारे हक़ में हदों का जिस तरहां का तअय्युन
भी लोग चाहे,
हम उन हदों की ख़िलाफ़ वर्जी
किसी भी सूरत नहीं करेंगे ।
तुम्हारे बच्चों की खैरियत की दुआएं
अपने परों पे लिख कर तमाम
सम्तों में आजतक हम उडा किए है उड़ा करेंगे।
पतंगबाजों नवाबजादों,
यह लखनऊ है।
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