Saturday, July 4, 2009

सुनहरी हर्फ़

कभी ख़ुद को मकम्म्ल तौर पर
खाली अगर महसूस कर पाओ !
तो मैं तुमको तुम्हारी शख्सियत के पार ले जाऊं ।
तुम्हारी शख्सियत जिसने तुम्हें,
बीमार आवाजों के जंगल में,
भटकने के लिए हर दौर मैं मजबूर सा पाया,
मगर फिर भी कहीं कुछ था
कि जो तुमको बचा लाया।
तुम्हारी शख्सियत दर अस्ल
मिटटी का खिलौना है,
जो अपनी आप मैं लज्ज़्त की,
लम्हदूद वुसअत को समोना है
मगर फिर भी कहीं इक बोझ ढोना है।

कँवल, कीचड
बज़ाहर दो अलग कैफीयातें हैं
एक पानी की ,
मगर तुमने कभी उसको भी जाना है,
कि जिसने हर कदम
दोनों की छुप कर बागवानी की।

वही इक रब्ते - बाहम
तुम को मुझसे, मुझको उससे
और उसे सब से मिलाता है;
ये वो दरिया है जो अक्सर
बयक लम्हा हज़ार इतराफ़ लहराते हुए
बहता बहाता है।

लिहाज़ा ! आज मैं उस रब्ते बाहम सा
तुम्हारे सामने हूँ, और कहता हूँ,
कि यूँ बीमार आवाजों के जंगल में
तुम्हारा सुग्बुगाना
कौन से हर्फे नवां का नाम पायेगा,
वो सब जोशे नम
जो दश्ते इमकान की अमानत है
अगर अपनी तबीयत से हटा
तो बिल्यकीं बेकार जाएगा ।

सुनहरी हर्फ़ की जागी हुयी आहट को पहचानो
तो मैं तुमको तुम्हारी शख्सियत के पार ले जाऊं।

---------------------------------------------

No comments: