Sunday, May 17, 2009

इक संग जब सुकूत की

इक संग जब सुकूत की मंजिल गुज़र गया,
सैली सदा के रंग फ़ज़ाओं में भर गया।

कतरा जो आबशार के दिल में उतर गया,
पानी का फूल बन के फ़ज़ा में बिखर गया।

उलझा मैं साँस साँस रगे-जां से इस कदर,
आख़िर मेरा वजूद मुझे पार कर गया,

साया सा इक इधर को ही लपका तो था मगर,
जाने कहाँ से हो के परिंदा गुज़र गया।

खिड़की पे कुछ धुँए की लकीरें सफर में थीं,
कमरा उदास धूप की दस्तक से डर गया।

छत पर तमाम रात कोई दौड़ता फिरा,
बिस्तर से मैं उठा तो वो जाने किधर गया।

खुशबू हवा में नीम के फूलों से यूँ उडी,
तलअत तमाम गाँव का नक्शा संवर गया।

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वो जो मुझमें इक आफ़ताब सा है

वो जो मुझमें इक आफ़ताब सा है,
आँख है या कोई सराब सा है।

पानियों की सदायें कौन सुने,
प्यास का जिस्म तो हुबाब सा है।

शाख़ - दर - शाख़ जल रहे हैं दरख्त,
सारा जंगल किसी गुलाब सा है।

जाने किसके लहू की बात चली,
कत्लगाहों में इज़्तराब सा है।

तोड़ आया हूँ आइनों के ही साए,
फिर भी इक अक्स हम रकाब सा है।

कांचघर हो की आसमां तलअत,
हर उजाला शिकस्ते ख़्वाब सा है।

बिस्तर की हर शिकन पे

बिस्तर की हर शिकन पे हवा का गिलाफ़ था,
वरना मेरा वुजूद तो पहले ही साफ़ था,

चारों तरफ़ थी गूंजती रेलों की पटरियां,
मैं जिन के दरमियान ख़ुद अपने ख़िलाफ़ था।

तुझ बिन हमारे पाँव को रस्ता न मिल सका,
पानी तो उस नदी का बड़ा पाक साफ़ था।

शीशे ब फैजे तश्ना लबीं टूटते रहे,
रिन्दों का मैकदे से अजब इन्हाराफ़ था।

पीते थे और घर का पता पूछते न थे,
बस इक यही गुनाह तो हम को मुआफ़ था,

सुलझा रहे थे लोग सब आपस की उलझने,
वरना जहाँ में कौन किसी के ख़िलाफ़ था।

मुझ को उठा के गोद मैं कैसा हुआ बलंद,
ओढे हुए बुजुर्ग जो आया लिहाफ़ था।

तलअत ग़ज़ल के नाम को पहुंचा तो किस तरहं,
यह आदमी तो एक अधूरा ज़िहाफ़ था।

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कुछ ऐसे ढंग से टूटा है

कुछ ऐसे ढंग से टूटा है आइना दिल का,
हर एक अक्स नज़र आ रहा है टेढा सा।

हुआ जो शख्स ख़ुद अपनी ही कोख से पैदा,
वोह अपने क़त्ल की साज़िश में भी मुल्लव्विस था।

हरेक पहलू पे ख़ुद को घुमा लिया मैने,
किसी भी आँख का लेकिन न ज़विया बदला।

उछल के गेंद जब अंधे कुएं में जा पहुँची,
घरों का रास्ता बच्चों पे मुस्कुरा उठता।

खिराज क़र्ज़ की सूरत अदा किया हमने,
हमारे शाह ने फिर भी हमे गदा समझा,

मैं हर सवाल का तनहा जवाब था तलअत,
मेरे सवाल का लेकिन कोई जवाब न था।
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