Saturday, July 11, 2009

हिमाचल की याद

हल्के नीले रंग का मेरा नया ऊनी पुलोवेर
और यह सर्दी का मौसम,
इन दिनों जब पर्बतों पर बर्फ गिरती है
तो जाने क्यों मुझे
भेड़ों के बच्चे याद आते हैं,
और मेरी सोच
उन भेड़ों की नंगी पींठ छू कर लौटती है
जिन के जिस्मों से
अभी तक उन उतारी जा रही है,
वो चरगाहें कहाँ होंगी
के जिन में
धुंध के नीचे सभी कुछ
सोया सोया जग रहा है
मैं भी उन भेड़ों के बच्चों में से
कोई एक हूँ,
जाने मुझे क्यों लग रहा है।

--------------------------------

अग्ज़ास्ट फैन

मैं आवारा तबीयत तो नही
लेकिन हमेंशन
अपनी महवर पर अकेले घूमते रहना
मुझे अच्छा नही लगता।
यहाँ तो यूँ भी चारों ओर बस मकड़ी के जाले
धूल मिटटी और अँधेरा है ।
यह छोटा सा दरीचा,
जिस के अन्दर,
इन सभी के साथ मैं बरसों से जिंदा हूँ
हमारा सब का मुश्तरका बसेरा है।

इधर बाहर मेरे मुंह की तरफ़
आकाश खुलता है
तो पीछे एक बूढा रेस्तरां
जो नित नयी तहज़ीब के सांचे में ढलता है,
वो शायद सो रहा है,
और मेरी आवाज़ सन्नाटे पे तारी है,
मेरी आवाज़ गोया
सो रहे अजगर के मुंह से साँस जारी है।
अभी कुछ देर पहले तक
वहां सब रौशनी,
हर मेज़ पर लोगों का जमघट था,
मगर अब चंद खाली कुर्सियां
मेज़ों के सीनों से लगीं आराम करती हैं
यह सब हर सुबह उठ कर
आने वाले ग्राहकों के नाम पर
बनती संवारती हैं

मैं काफी थक गया हूँ
अब जो थोड़ी देर को बत्ती चली जाए
तो मुझको नींद आ जाए।
मैं, आज आंखों में
उस बच्चे की भोली मुस्कराहट ले के सोऊंगा,
जो कल इस रेस्तरां में
अपनी मां के साथ के साथ पहली बार आया था,
मेरी आवाज़ पर हैरतज़दा हो कर
जब उसने मां से कुछ पूछा
तो उसने यूँ बताया था,
की "बेटे! आदमी की साँस,
रोटी की महक, सालन की खुशबू
और सिगरेट का धुआं
इक तरहां से कैद हो जायें
तो यह पंखा उन्हें अपनी ज़रिये
खैंच कर
ताज़ा हवा का रास्ता हमवार करता है,
यह पंखा जानते हो आदमी से प्यार करता है।"
यह सुन कर फूल से बच्चे के चेहरे पर
न जाने कौन से जन्मों की
मीठी मुस्कराहट जाग उठ्ठी थी
मेरे दिल से भी जिसको देख कर
इक आग उठ्ठी थी ।

उसी इक आग की लौ में
मैं अपने आप को शायद कभी पहचान पाऊँगा
मगर इस धूल मिटटी और अंधेरे से
भला कब तक निभाऊंगा ।

मैं काफी थक गया हूँ,
अब जो थोड़ी देर को बत्ती चली जाए
तो मुझको नींद आ जाए,
मुझे कल सुबह
फिर ताज़ा का रास्ता हमवार करना है
की उस बच्चे की मीठी मुस्कराहट के लिए
इस ज़िंदगी से प्यार करना है।

-----------------------------------------



Sunday, July 5, 2009

टूटे सितारे

चाँद में बैठी हुयी बुढ़िया का चरखा चल रहा है,
धागा धागा रौशनी,
जिन रास्तों से,
आस्मां को जा रही हिं ,
यह वही टूटे सितारे जानते हैं,
जिन के हाथों की लकीरें
आज भी बुढ़िया की जेबों में पड़ीं हैं,
और जिनकी आरज़ूयें
आस्मां से भी बड़ी हैं
हाँ मगर मादूम हैं जो,
अपने होने का ग़लत मफहूम हैं जो।

-----------------------------

तहजीब का सफर

झुलसती दोपहर,
नंगे बदन बच्चे भिखारन के
सभी के हाथ में किश्कौल,
दायीं, सम्त का आकाश खाली है,
सरों पर धूप है, या
एक बेआवाज़ गाली है,
कभी किश्कौल उठ उठ कर
फिज़ा का मुंह चिढाते हैं,
कभी बच्चे उन्हें गंदले सरों पर रख के
तबला सा बजाते हैं।
सफर तहजीब का सड़कों पे जारी है,
मगर इस शहर में,
अंधी भिखारन के लिए
अब दो कदम चलना भी भारी है।

ज़रा सी छाँव आयी
रुक गए, चारों तरफ़ देखा;
ज़रा दम साध ले
तो फ़िर कहीं आगे का कुछ होगा।
कहीं से कोई सिक्का
फ़िर किसी किश्कौल में आए,
तो यह अंधी भिखारन
अपना डेरा आगे ले जाए।

----------------------------

ताना बाना

शोर, सन्नाटे के बीजों को
ज़मीं पर रौंदता है
और कहता है की "जाओ !
जिस तरहां मैं इस जगह लाया गया हूँ,
तुम भी जाकर
अपनी कोई दूसरी दिनिया बसाओ!'

और सन्नाटा,
ज़मीं का दर्द सीने से लगाये
लड़खड़ा कर डोलता है
खुरदरे कम्बल से
इक खामोश पैकर बोलता है ,
मिल्ताज़ी आंखे
की जैसे ज़र्द चेहरा पूछता हो,
"शोर भाई!
हम तेरे कहने पे
अपना धागा धागा साथ ले कर जा रहे हैं ।
बाद में,
लोगो को लफ्जों की ज़रूरत आ पडी तो
तुम अकेले क्या करोगे ?"

--------------------------------------

तपस्वी बैल

सींग दायां हो कि बायाँ
बैल को तो,
जिस किसी सूरत, ज़मीं को
सर से ऊंचे थामना है।
कुछ कभी गर्दन बचाने की
अगर फुर्सत मिली भी
तो ज़मीं पर,
ज़लज़ला, सैलाब, तूफां, क्या न आया
और फ़िर कुछ आसमानी देवताओं ने,
उसे आ कर डराया ।
"यूँ न होना, यूँ न करना
अपनी हर हरकत से डरना।
वरना,
इस धरती के बाशिंदों की रूहें
चीख कर तुझ से लिपट जायेंगी
जिन की बद्दुआ से
ता अबद तुझ को जहन्नुम की
सुलगती आग में जलना पडेगा"!
तब से वह इक सींग पर धरती उठाये
दम बखुद सीधा खड़ा है,
बैल गोया वूँ नही तो यूँ जहन्नुम में पड़ा है।

----------------------------------------

मैं आया

बिछ्ड्ते वक्त ,
पिछली मर्तबा उसने कहा था
"तुम ज़रूर आना !"
कहा था
"वक्त मिलते ही ज़रूर आना"!
मैं आया
किस तरहं आया
न जाने किस तरहं आया?
मगर अब
उसकी आंखों से
मेरी पहचान गायब है
कहाँ जाऊं?
मैं जाऊं?
लौट जाऊं?
लौटना मेरा मुक्कद्दर है।
मगर, ऐ काश !
बस इक बार वह आंखें उठा कर देख ले
और सिर्फ़ इतना पूछ ले मुझसे
"तुम आए हो ?"
के पिछली मर्तबा उसने कहा था
"तुम ज़रूर आना!"

------------------------------

Saturday, July 4, 2009

इंतज़ार

वोह सारे खुश्क पत्ते
जो हमारे पाँव के नीचे
कुचल कर चीख उठठे थे,
मुझे उनकी सदायें,
नज़्म करने के लिए कहकर
गजरदम की गयीं, तुम
शाम तक वापिस नहीं लौटीं
तो मैं दिन भर की यह लिख्खी हुयी नज़्में
भला किसको सुनाऊँगा?
किसे कैसे बताऊंगा ?
कि मौसम खुशक पत्तों का नही
फूलों की आमद है।
--------------------------

शायरी

मैं जब जब
अपने अन्दर की आंखें खोल रहा होता हूँ,
चारों ओर
मुझे बस एक उसी का रूप नज़र आता है,
नहीं चाहता कुछ भी कहना
लेकिन एक अजीब कैफ़ीय्यत,
साँस-साँस इज़हारे तअल्लुक
यादें, आंसू, लोग, ज़मीं, आकाश, सितारे
जैसे कोई बहरे फ़ना में
आलम आलम हाथ पसारे,
और मदद के लिए पुकारे
और वह सब जो
पीछे छूट चुका होता है
या आगे आने वाला होता है
जाने कैसे?
सन्नाटे की दीवारों को तोड़ के
अपनी आप ज़बां में ढल जाता है,
दूर अन्देरे की घाटी में
एक दिया सा जल जाता है।

---------------------------------------

लफ्ज़ की बुनियाद

चुप के यह कैफियत
सिर्फ़ अल्फाज़, जैसे भी
जो भी, जहाँ से भी आयें, सुनें!
अपनी अओंखों के नज़दीक लाकर
उन्हें, देख पायें
कहीं से ज़रा छू सकें ।
और तब हम से शायद ज़मानों-मकां के लिए
इक नया लफ्ज़ इजाद हो
जो की आइन्दा सोचों की बुनियाद हो,
और मुमकिन है यह भी हामी कोई
गुमशुदा याद हो।

------------------------

शहर, आइना तुम और मैं

तुम्हें, अपने आलावा शहर में
जब कोई शै अच्छी नहीं लगती,
तुम्हें जब कोई शै अच्छी नहीं लगती,
तो मैं तुमसे,
तुम्हारे आइने की बात कहता हूँ,
के हर लम्हा ख़ुद उसके पास रहता हूँ ।
मगर तुम हो कि अपने आइने को भी
उठा कर
भीड़ के चेहरे से अक्सर जोड़ देते हो,
अब ऐसे में
अगर तुमसे कोई पूछे
"सिवा इक लज्ज़ते दर्दे निहाँ
तुम किस के वाकिफ हो ?"
तो शायद रो पड़ो ,
या अन्दर अन्दर टूट जाओगे
कि मैं जो हर कहीं
मौजूदो न मौजूद रहता हूँ
(फ़कत ऐसे ही आलम के लिए हर आँख से मफ़्कूद रहता हूँ)
तुम्हारे आंसुओं के दरमियाँ से
जज़्ब कर के जा चुका हूँगा,
तुम्हारे आइने को साफ़ रखने की गरज़ से
मुझ को जो कहना था सब समझा चुका हूँगा।

---------------------------------------------

सुनहरी हर्फ़

कभी ख़ुद को मकम्म्ल तौर पर
खाली अगर महसूस कर पाओ !
तो मैं तुमको तुम्हारी शख्सियत के पार ले जाऊं ।
तुम्हारी शख्सियत जिसने तुम्हें,
बीमार आवाजों के जंगल में,
भटकने के लिए हर दौर मैं मजबूर सा पाया,
मगर फिर भी कहीं कुछ था
कि जो तुमको बचा लाया।
तुम्हारी शख्सियत दर अस्ल
मिटटी का खिलौना है,
जो अपनी आप मैं लज्ज़्त की,
लम्हदूद वुसअत को समोना है
मगर फिर भी कहीं इक बोझ ढोना है।

कँवल, कीचड
बज़ाहर दो अलग कैफीयातें हैं
एक पानी की ,
मगर तुमने कभी उसको भी जाना है,
कि जिसने हर कदम
दोनों की छुप कर बागवानी की।

वही इक रब्ते - बाहम
तुम को मुझसे, मुझको उससे
और उसे सब से मिलाता है;
ये वो दरिया है जो अक्सर
बयक लम्हा हज़ार इतराफ़ लहराते हुए
बहता बहाता है।

लिहाज़ा ! आज मैं उस रब्ते बाहम सा
तुम्हारे सामने हूँ, और कहता हूँ,
कि यूँ बीमार आवाजों के जंगल में
तुम्हारा सुग्बुगाना
कौन से हर्फे नवां का नाम पायेगा,
वो सब जोशे नम
जो दश्ते इमकान की अमानत है
अगर अपनी तबीयत से हटा
तो बिल्यकीं बेकार जाएगा ।

सुनहरी हर्फ़ की जागी हुयी आहट को पहचानो
तो मैं तुमको तुम्हारी शख्सियत के पार ले जाऊं।

---------------------------------------------

Sunday, June 28, 2009

आओ वापिस चलें

तुम वही लोग हो,
मुझ को मालूम है उम वही लोग हो,
जिन के अजदाद की शाहरगों का लहू
मुद्दतों इस गुलिस्तान को सींचा किया,
मुद्दतों की गुलामी की जंजीरों को
जिन के अजदाद ने तोड़ कर रख दिया ।

तुम वही हो जिन के दिल में कभी
इत्तहाद ओ अख्वत के जज़्बात थे
हर कड़ी वक्त पर जो वतन की खुदी के मुहाफिज़ रहे
जिन की पेशानियों का पसीना सदा
खिदमते कौम में सर्फ़ होता रहा।
जिनकी जिंदा दिली
जिन की सादा दिली,
हर तरहां की सियासत से बाला रही।
तुम वही हो कि जिनकी लुग़त में कभी
बरबरीयत कोई लफ्ज़ था ही नही।

मुझ को मालूम है,
ये जो सड़कों पर बिखरा हुआ लहू
यह जो माहौल दहशत ज़दा है यहाँ
यह जो गलियों में है सोग छाया हुआ,
यह जो आकाश को छू रहा है धुंआ
उठ रही हैं जो लपटें वहां आग की
यह सभी कुछ तुम्हारे किए से नही
इस के पीछे किसी और का हाथ है।

लेकिन ऐ दोस्तों
तुम ने सोचा भी है?, तुम ने जाना भी है?
इन सब एमाल से, ऐसे किरदार से
अपनी मंजिल की जानिब रवां कौम को
तुम ने लाकर कहाँ से कहाँ रख दिया ?

यह थकन, यह उदासी, यह पज़्मुर्दगी,
गर्द आलूद चेहरों की धुंधली ज़या,
कौम के ताज़ा दम होने के वक्त पर
तुम ने यह क्या किया?
हाय ! यह क्या किया??
यह कोई वक्त था? आपसी बैर का?

खैर अब तक तो जो सो हुआ,
याद रखने की अब से बस इक बात है।
कोई भी वक्त हो कोई भी दौर हो,
मुल्क हर फिरका ओ फर्द से है बड़ा!
और इसके आलावा भे ऐ दोस्तों
आदमी तो फरिश्तों की औलाद है
उसका शैतान बनना मुनासिब नही।

चौक, बाज़ार, गलियां, दुकानें
सभी शाह राहें दफातर मिलें,
ज़ंग खाती हुयी रेलों की पटरियां,
कारखानों की दम तोड़ती चिमनियाँ,
आलमें यास में सर गरां खैतियाँ
आदमी और धरती के पाकीजा रिश्ते की कसमें
सरों पर उठाये हुए, हर कदम पर सदा दे रही हैं तुम्हें!
आओ वापिस चले, आओ वापिस चले।
--------------------------------------------

कपिल वास्तु का राजहंस

(आंजहानी श्रीमती इंदिरा गांधी की शहादत के बाद भारत के नाम)

तुम इक तयशुदा रास्ते पर थे लेकिन,
लगातार यक्सा बलंदी पे उड़ना खतरनाक था,
और तुम अपनी परवाज़ में इस कदर मुब्तला हो चुके थे
कि सम्तों की पहचान के साथ ही साथ दूरी का अहसास भी खो चुके थे
बयक वक्त उस कैफियत में तुम्हारा
कई आलमों से गुज़र हो रहा था,
मगर तुमने सोचा न था सामने से
उफ़ुक दर उफ़ुक आइना आइना मुख्तसर हो रहा था,

तभी मैं तुम्हें रोक कर कुछ कहूं
पेश्तर इसके इक तीर आकर तुम्हारे परों में समाया
शिकारी तुम्हारे तअकुब में भागा,
बहुत दूर तक भाग कर साथ आया,
फ़ज़ा में उसी तीर की अभी तक सनसनाहट हेई तारी,
कि जिस से बंधा हांफता है शिकारी ।
बलंदी से गिरता हुआ कतरा कतरा लहू कौन रोके ?
ज़मीं फिर भी शाना ब शाना तुम्हे
अपनी आगोश का वास्ता दे रही है
"उतर आओ ! अब और उड़ना मुनासिब नही"
यह सदा दे रही है।

मगर तीर की नोक पर यूँ टिके
जान के खौफ को तुम मयस्सर न होना।
यहाँ से ज़रा दूर नीचे खड़ा
वरना सिद्धार्थ तुम को नही पा सकेगा
परों से तुम्हारे वो जब तक
न इस तीर तो खेंच कर अपनी हाथों से निकाले
अहिंसा की उस को नज़र कौन देगा?
कपिलवस्तु का शहजादा,
बिलाखिर
यहीं से निकल कर तो गौतम बनेगा !

-------------------------------------------

कबूतरों की अर्ज़दाश्त

पतंगबाजों नवाबज़ादो
यह लखनऊ है,
यहाँ की तहज़ीब दोस्तों !
इक तुम्हारी मोरास ही नही है
हमारा भी नाम
इस की तारिख में लिखा है।

गए वो शाही जो हम गरीबों को
आए दिन नोच खा रहे थे
गए शिकारी जो नित नए जाल के ज़रिये
यहाँ वहां सब को उंगली उंगली नचा रहे थे।
मगर हमारी उड़ान भरने की हर सयी पर
हज़ार तरहं की बंदिशें आज भी लगी हैं
मगर जो एक आस्मां हमारे लिए बना था
वो रफ्ता रफ्ता सिमट रहा है
कि आदमी आदमी के हाथों
पतंगबाजी में कट रहा है।

हमारा क्या और हमारी परवाज़ की
फ़ज़ाओं पे दस्तरस क्या?
मगर वो सब लोग जो हमें
अमन के पयंबर सा कह गए हैं
न जाने किस राह रह गए हैं।
हमारे डेरे भी उन बुजुर्गों के साथ ही
वक्त की नदी के पार बह गए हैं।

नयी पुरानी सभी तरहं की इमारतों में
हम इन दिनों एक साथ जीने की
कोशिशों में लगे हुए है।

हमारा सब रंगों नस्ल का इम्तियाज़ भी,
कब का मिट चुका है,
कि हम फ़कत आदमी के दुःख में
उदास आखों जागे हुए हैं ।

कोई इलाका हो, शहर हो मुल्क हो या जज़ीरा
हमारा पैगाम तो सदा अमनो - अश्ती था,
है और रहेगा।
हमारा हर कहब आदमी की
सलामती के लिए बना है बना रहेगा।

हमारा जंगल से कुछ नही वास्ता
अगर हो भी तो अमे इल्म है
कि हम कुर्रा ऐ ज़मीं पर बगैर इन्सां कहीं भी ज़िंदा न रह सकेंगे।
हमारे हक़ में हदों का जिस तरहां का तअय्युन
भी लोग चाहे,
हम उन हदों की ख़िलाफ़ वर्जी
किसी भी सूरत नहीं करेंगे ।
तुम्हारे बच्चों की खैरियत की दुआएं
अपने परों पे लिख कर तमाम
सम्तों में आजतक हम उडा किए है उड़ा करेंगे।
पतंगबाजों नवाबजादों,
यह लखनऊ है।
---------------------------------------

Saturday, June 27, 2009

चक्रव्यूह

दोस्त मेरे!
कृष्न का माना कि तुमने नाम सुन रखा है
लेकिन,
कंस तो कोई कभी मारा नहीं है,
और न तुमने
द्रौपदी को लाज लुटने से बचाया,
पूतना दाई, बकासुर और कालीनाग के
किस्सों का भी गीता से गहरे में तआल्लुक है,
किसी ने आज तक तुमको बताया?
जिस को दुर्योधन समझते हो
कभी उस के घरेलू यज्ञ में शिरकत ही की
या झूठे पत्तल भी उठाये?
तीन मुठ्ठी सत्तुओं की चाह में
क्या तुम सुदामा के कभी नज़दीक आए ?

और भी कितना ही कुछ
जो "है नहीं है" से परे
लेकिन हमारी कौम के
रूहों - रगों - रेशा ज़मीं के चप्पे चप्पे से जुडा है,
कृष्न जिसके नाम से है और जो ख़ुद कृष्न का पैगम्बर है,
जाविदाँ है
क्यों की यह हिन्दोस्तां है।
कृष्न का माना कि तुमने
नाम सुन रख्खा है लेकिन,
दोस्त मेरे!
और इस पर भी अगर गांडीव उठाने पर तुले हो,
तो ज़रा सोचो,
कि अर्जुन की तरहं जिस जंग में तुम आ खडे हो,
व्यूह चक्कर इस जगह
किन अजनबी राहों से हो कर आ रहा है?

सर बकफ़ हो कर निकल पड़ने में कुछ लगता नहीं है,
क्यों के जिसको व्यूह की रचना समझ में ही न आए
वह महाभारत के पन्नो पर
ज़्यादा से ज़्यादा एक अभिमन्यू रहेगा।

हा! अगरचे! कृष्न को तो उस पे भी
तुम को अकेला देख कर
रथ से उतरना ही पडेगा,
और तुम्हारे रथ का ही
टूटा हुआ पहिया उठा कर
वह तुम्हारी ही हिफाज़त ख़ुद करेगा।
क्यों के तुम अर्जुन भाकेय्ही बन न पाओ
कृष्न तो अपनों की खातिर
कृष्न ही बनकर लडेगा।
------------------------------
------------------------------

अलिफ़, बे, पे,

नीलगूं पत्थर सलेटों पर
गज़ालों की तरह आंखें बिछाये
हम लकीरें खेंचते,
आपस में कुछ बतिया रहे थे।
माहसिल किन किन लकीरों का
कहाँ किस हर्फ़ मैं कितना घाना है,
बस यही
चंचल परिंदों की अदा में
बोल कर समझा रहे थे।
उस घड़ी उस्ताद साहिब को
ग़ज़ल उतरी हुयी थी,
असमान पर बादलों के झुंड
गोते खा रहे थे।

हम अभी शायद
अलिफ़ बे पे ही लिखना सीख पाए थे
कि जब इस्कूल में सैलाब आया
गाँव के कच्चे मकानों से निकल कर
कोई बहार आ न पाया।

मैं, महम्मद, राम, गौतम और नानक,
हम सभी को इक नयी तरकीब सूझी।
पीठ पर बस्ती उठाये,
तख्तियां सीनों से चिपकाये
गली के मोड़ तक हम तैर आए।
दम ब दम इस्कूल की गिरती हुयी छत
हम को वापिस लौट आने के इशारे कर रही थी।

हम ने पल भर के लिए सोचा
मगर तब
दफअत्तन, आकाश सन्नाटे में गूंजा,
चौंधियाती आँख से हम
एक दूजे के लिए लपके
मगर सब खो चुका था,
हर कोई चुपचाप अकेला हो चुका था,

मैं, महम्मद, राम, गौतम और नानक,
होश आने पर सभी ने
गाँव की मिटटी को माथे से लगाया।
और अलिफ़ बे पे के लफ्ज़ों को
दिलों के साथ सीनों में सजा कर
अपनी अपनी ज़ात का परचम उठाया।

गो के उसके बाद हम अपनी विरासत खो चुके थे,
हम जमाअत साथियों के नाम लेकिन
दूसरी जगहों पे रौशन हो चुके थे।

दर हकीकत!
उस अलिफ़ बे पे से आगे
आज तक जो कुछ कहीं लिखा पढ़ा हमने
कि सीखा या कहा सब खेल सा था,
आईना इदराक के चेहरे ही से बे मेल सा था।
मैं, महम्मद, राम, गौतम और नानक,
हम कहीं भी हों
मगर अन्दर से हम सब
किस कदर यक्जान हैं
ये तो हमीं पहचानते हैं,
लोग तो अक्सर हमारे
तागडी, तावीज़, कश्का, केस, पगडी
या जनेऊ को ही सुन्नत मानते हैं।

ज़िंदगी गुज़री
मगर लगता है जैसे
आज भी अपनी अपनी सुन्नतों को
पीठ पर बस्तों की सूरत ढो रहे हैं,
आज भी इस्कूल की
गिरती हुयी छत से इशारे हो रहे हैं।

--------------------------------

परखनली की अज़ान

खुदाऐ - बरतर के खौफ से जो,
बशर के हक़ में -
नमाज़ उतारी गयी ज़मी पर,
वो हमसे नीत्शे के उन फरिश्तों ने छीन ली है,
जो उस को मुर्दा करार दे कर
खुदा की मैय्यत पर आज तक कह कहा रहे हैं,
उन्हीं फरिश्तों ने इस ज़मीन पर
कुछ ऐसे उस्ताद भी उतारे जो
हम को सम्भोग में समाधी सिखा रहे हैं,

परखनली की मशीन जो साँस ले रही है,
वो आदमो - हव्वा की कहानी को
इक नया जनम दे रही है।
न जाने इस आदमी का क्या हो?
न जाने क्या हो?
-------------------------

Friday, June 26, 2009

सर्द रौ

सर्द रौ पिछले कई दिन से,
शुमाली हिंद को घेरे हुए है,
सोचता हूँ
वो शुमाली हिंद हो या
खित्ता ऐ सरतान का छोटा सा इक तनहा जज़ीरा,
एक दिन यह सर्द रौ
सारी ज़मीन को घेर लेगी।
और हम सब
धूप में झुलसे हुए चेहरे उठाये,
बर्फ पड़ने की दुआएं मांग कर रूपोश होंगे।

मैं अभी कुछ देर पहले
शहर की सड़कों पे आवारा भटकता फिर रहा था,
मैने देखा
निस्ब शब् का चाँद जाने किस जगह जा कर छिपा है।
कुमकुमों का शहर अँधा हो गया है।
शहर का माहौल, जंगल की फज़ा सब
एक भूरी धुंध में लिपटे हुए हैं,
असमान हद्दे नज़र तक मुन्ज्मिद है,
साया साया दम बखुद है।
सिर्फ़ कुछ नक्काल चीखें हैं
जो रह रह कर फज़ा में गूंजती हैं,
खोखली सम्तेँ
जिन्हें सुन कर सितारों को सयाही बाँटती हैं,
हब्स बर्फानी इलाकों का
नशेबों में उतर कर रेंगता हैं।
तुम हवा का जायका चखने से पहले
अपने अन्दर खून की मिकदार जांचो।
खून की रफ़्तार तो बेशक वही हैं
दिल धड़कने का मगर अंदाज़
पाओगे के पहले से जुदा हैं।
बंद कमरों के सब आतिशदान खाली हो चुके हैं
अब वहां मुर्दा हवा का खौल हैं
या आग का बेजान चेहरा।
एक लामहदूद गहराई की खंदक
मुझ पर मुंह बाये खड़ी है
बात जो मैने उठाई थी
वो मुझ से भी बड़ी है।
सर्द बिस्तर
मेरे हर मूऐ बदन में ज़हर सा बोनी लगा है।
ज़ह्न में उड़ती हुयी चिन्गारियों का शोर है
सोचता हूँ
क्या फकत अखबार के अव्राक उलटने से
ज़मीरों का सफ़र तय हो सकेगा
ज़ायचों और ज़ायचों के दरमियाँ जो,
एक बे हममँम खला है
क्या कोई भी हाथ उसे पुर कर सकेगा
सर्द रौ का
रीढ़ की हड्डी से जब सीधा सा रिश्ता हो
तो फिर हिज्याँ गोई क्या करेगे?

लाख घर

तो यह सब जान लेने पर
कि बहार आग है और तुम मकय्यद हो,
मकय्यद यूँ कि अन्दर की चटखनी तो
चढा कर सो गए लेकिन
जब उठ्ठे हो तो बहार आग है
और सब तरफ़ अन्दर अँधेरा है।
तुम्हारे हाथ में ताली से लगता है
तुम्हें मालूम है अन्दर के दरवाज़ा कहाँ पर है,
चटखनी किस तरहां कि और ताला कब लगाया था।
तुम्हें यह भी भरोसा है
कि बिस्तर पर पडे रह कर भी
तुम ताला चटखनी और दरवाज़ा वगैरा खोल सकते हो।
यह मुमकिन है
तुम्हारे चाहने भर से
चटखनी घूम जाए, टूट कर ताला गिरे दरवाज़ा खुल जाए,
मगर यह भी तो मुमकिन है
कि जब तक तुम यह सब जादू जगा पाओ !
हवा उन रास्तों को आग से मसदूद कर जाए
जो तुम ने बच निकालने के लिए तैय्यार सोचे हों।
तो फिर यह जान लेने पर
कि बहार आग है और तुम मकय्यद हो
कि अन्दर कि चटखनी तो चढा कर सो गए
लेकिन जब उठ्ठे हो तो अब
तो जाग भी जाओ,
कि बहार आग है, अन्दर अँधेरा
और सफ़र बाकी।

Thursday, June 25, 2009

सच का झूठ

हुआ यूँ, एक दिन जब
रास्त गोई के तअल्लुक से,
मैं उसके सामने हाज़िर हुआ तो
उसने मेरी ज़ात की तफ़सील मांगी।
मैं के यूँ तो रास्त गोई के लिए मशहूर,
उसके नाम से लेकिन हमेशां
खाय्फ़ो मजबूर
सा महसूस करता आ रहा था,
सिर्फ़ अपने आप में आने को
थोड़ा कसमसाया,
और मुझे यूँ देख कर
वो सादगी से मुस्कुराया।
मैने कुछ सोचा
मगर कहने को जूँ ही सर उठाया,
झूठ सच दोनों ही,
उसके दायें बाएं से निकल कर
सैंकडों चेहरों से मुझ पर हंस रहे थे ,
उसके सर पर अज़दहे की आँख थी
और मेरे पाँव पक्के फर्श पर भी
धंस रहे थे।
---------------------------------------

Tuesday, June 16, 2009

हिचकियाँ

हम नशे में गलियां देती हवा से लड़ रहे थे,
हम नशे में थे
हवा जब गलियां देती हुयी गुज़री,
तो हम खुल कर हंसे, हंसते रहे।
लेकिन,
तभी तूने हमारे नाम से हम को पुकारा,
डूबने वाले के जैसे हाथ पर ला कर
कोई रख दे किनारा।

और तब हम यक बयक रोने लगे,
रोते रहे, रोते रहे थे।
क्यों की जो बाकी था
सब आंसू थे या आंखे की जो कुछ था,
वो तेरे नाम की बस हिचकियाँ सी खा रहा था,
और तू हमे छू कर,
हवा के साथ वापिस जा रहा था।
--------------------------------

मगर नीचे जहाँ मैं हूँ

यहाँ से सर उठा कर
आस्मां को देखना अच्छा तो लगता है,
मगर नीचे जहाँ मैं हूँ,
वहां से और नीचे,
कितना कुछ कुहरे में डूबा है।
तुम्हारे आंसुओं की याद में
भीगी हवा पगडंडियों से लौट कर
मुझ से लिपटती है,
तो मैं यकलख्त उस मदिर से आती
घंटियों की नाद सुनता हूँ जहाँ
तप, ध्यान, पूजा, साधना, आराधना
आठों पहर चलते ही रहते हैं।

दरख्तों का इकहरा झुंड
जो उस परबत के माथे पर तिलक सा चमचमाता है,
मुझे उस डूबते सूरज के साये में बुलाता है,
जो मन्दिर के शिखर पर
आरती के थाल सा कब से आवेज़ां है।
मुझे लगता है
मैं भी आस्मां के साये में
इस डूबते सूरज सा तन्हा हूँ।
तभी चुपके से कोई कान में
आकर ये कहता है।
"उधर देखो !
उफ़ुक से ता उफ़ुक सनाएई ऐ कुदरत
पर अफशां है।
मगर जिस मोड़ पर तुम हो
वहीं दीवारे - जिंदा है"।

यहाँ से सर उठा कर
आस्मां को देखना अच्छा तो लगता है,
मगर नीचे जहाँ मैं हूँ।

-------------------------------------

सिसीफ़स के बाद

रात के गहरे सन्नाटे में,
अक्सर नींद उचट जाती है,
दुःख का वो पहाड़, जिसके नीचे मैं दब कर,
साँस साँस उलझा होता हूँ,
मेरे घर की दीवारों से,
गांव गली क्या, लगता है पूरी दुनिया तक
फैल चुका है।
और उसके पीछे से एक भयानक चेहरा
यहाँ वहां सब देख रहा है।

उसे देख कर मेरे जबडे कस जाते हैं,
और मुट्ठियाँ तन जाती हैं।
जी करता है ज़ोर ज़ोर से मैं चिल्लाऊं,
सब को अपने पास बुलाऊँ।
और अगर कुछ लोग मेरी आवाज़ पे आयें,
तो सब मिल कर,
इस पहाड़ के अन्दर तक हम जगह जगह बारूद बिछाएं,
और उसे पल भर में उड़ायें।

और तभी मेरी बहें लम्बी हो आकर,
उस पहाड़ की चोटी को ऊपर तक जा कर छू आती हैं।
कितने बड़े बड़े काँटों से,
उसकी पीठ लदी होती है।
और मुझे दुःख के पहाड़ का दुःख आता है।
लहूलुहान उँगलियों से जो उसकी पीठ को सहलाता है।
और मुट्ठियों में मेरी यकलख्त कहीं से,
खुशबू सा कुछ भर जाता है।
जो मेरी दोनों आंखों को गंगा जमुना कर जाता है।
दुःख का वह पहाड़ धुआं हो कर तब,
दूर अंधेरे के उस पार उतर जाता है।

--------------------------------------

Monday, June 15, 2009

मिटटी की तहें

शहर का तालाबजाने कब भरेगा?
नहर का पानी सुना है दे रहे हैं।
नहर का पानी मगर आने से पहले ही
कहीं यह गन्दगी से भर न जाए।

अब यहाँ जो भी दिखायी दे रहा है।
सब यहाँ ऐसा नहीं था।
यह वही तालाब है जिसमें कभी,
हर सुबह कितने ही कँवल खिलते रहे हैं।
धूप, जाड़ा, आसमां, ताज़ा हवा,
बाहें पसारे,
इस जगह मिलते रहे हैं।

मैं बहुत छोटा था शायद,
कुछ कहीं था भी की बस
यूँ ही सा था मैं।
बारिश आती, और हम बच्चे,
महल्लों से निकल कर,
भीगते किलकारियां भरते,
गली, बाज़ार, चौराहों को पीछे छोड़ते,
भागे चले जाते,
कि बारिश में सब इस तालाब में
मिल कर नहायें।
एक दूजे को छुएं,
पानी में तैरें, छप छपाएं।

अब कई दिन बाद आया हूँ
तो देखा है,
यहाँ सब किस कदर बदला हुआ है।
अब यहाँ दल दल है, keechad है,
फज़ा में गंदगी है।
उस तरफ़ का एक हिस्सा,
शहर में जो जानवर मरता है,
उस की खाल अलग करने के काम आने लगा है,
गिध्ध कव्वों और कुत्तों को,
बहुत बहाने लगा है।
दरमियाँ
अब भी कहीं कुछ है,
कि ज्कई के नीचे सुगबुगाता सा है,
पुराने मौसमों की याद को थामें हुए है।

कोई कहता है उसे मरघट से जोड़ा जा रहा है,
और कोई घाट के मन्दिर के बारे में
यह कहता है
कि "तोडा जा रहा है"।
कुछ का कहना है
कि जब चारों तरफ़
यह गन्दगी से भर उठे
तो एक दो मिटटी की हल्की सी
तहे दे कर
इसे इक खूबसूरत पार्क में
तब्दील कर दें।
या अगर सरकार को मंज़ूर हो तो,
इस जगह को बेच डाले
ताकि लोग
अपने लिए इस शहर में
कुछ घर बनालें।

Thursday, June 11, 2009

जन्म जन्मान्तर

सात मंज़िला साहिल की उस आलीशान इमारत की
चौथी मंज़िल से,
एक चीख उठी थी,
साथ साथ ही इक किलकारी,
और इन दो के पीछे पीछे
एक ठहाका बेहद भारी।

शायद कोई चीज़ गिरी थी,
जिसे पकड़ने,
नीचे ऊपर इधर उधर से
लोग अचानक भाग पड़े थे।
कोई गोताखोर नही था
और मैं तैराक।
यूँ ही बस देखा देखी कूद पड़ा था।
और समंदर को छूने से पहले मैने
साफ़ सुनी थी तीन आवाजें
इक किलकारी एक चीख
और एक ठहाका।

पानी की गहरायी का क्या अंदाजा था
मैं जैसे ही नीचे आया,
मैने पाया
दूर दूर तक तल का कहीं गुमान नही है,
पाँव सहारे को कोई पत्थर
कोई चटटान नहीं है।

तभी पलटने का ख्याल जब मन में आया,
मैं घबराया,
दम घुटता है।
साँस साँस मैं ऊपर को बढ़ता आता हूँ,
सतह समंदर को भी लेकिन
साथ साथ चढ़ता पाता हूँ।

जाने इस पानी से बाहर कब आऊंगा?
और उस आलीशान ईमारत में फिर वापिस कब जाऊंगा
खौफ यही है,
मेरे साथ समंदर भी
यूंही ऊपर उठता आया तो,
उस किलकारी
और ईमारत का क्या होगा?
-------------------------------------------

Saturday, June 6, 2009

हम, खिलौने और हुज़ूर अब्बा की उंगली

नए कपडे पहिन कर
आज हम,
इस गाँव के मेले में पहली बार आए हैं,
हुज़ूर अब्बा हमें उंगली थमाए हैं।
वो पहले से हमें,
मेले के बारे में बहुत समझा के लाये हैं।
हम उनके हुक्म की तामील में तो हैं,
मगरफिर भी,
शरारत, दायें बाएं साथ चलती है,
कभी मैं भागता हूँ और कभी
छोटि बहन आगे निकलती है।

बहुत से लोग हैं,
दंगल, तमाशे, खुर्दनी अश्या,
हजारों तरह की
रोजाना इस्तेमाल की चीज़ें,
मगर अपने लिए तो
बस यही,
दो चार दस उम्दा खिलौनों का तमाशा है,
हुज़ूर अब्बा ने हम दोनों की
हर जिद्द को,
नवाज़ा और तराशा है।

पुरानी एक मस्जिद
और थोडे फासले पर
एक छोटा सा शिवाला है।
इन्ही सब की बदौलत
आदमी का बोल बाला है।
यहाँ वरना
जो मेला साल में दो बार भरता है,

न जाने किन बहीमाना फरेबों से गुज़रता है.

सभी कुछ मुतमईन सा चल रहा है
फिर भी लगता है,
कही कुछ लोग आपस में झगड़ते हैं,
कहीं चुपचाप चलते
और कहीं इक दूसरे के पाँव पड़ते हैं।
मगर हम इन सभी से
बेन्याज़ा गुज़रते हैं।
हम अपनी खुशदिली का
भीड़ के चेहरे से
अंदाजा लगते हैं,
किसी भी आईने के सामने
ख़ुद को झलक भर देखते हैं,
खिलखिलाते हैं।
यूँही, अब्बा की उंगली थाम कर
जब आज हम मेले से लौटेंगे,
यो अम्मी से कहेंगे
"देखो ! अम्मी!
आज हम अपने लिए क्या लेके आए हैं।"

वो हम को देख कर सारे दुखों को भूल जायेंगी,
अजां का वक्त होगा
और हमें कुरआन की कोई नयी आयत सिखाएंगी।

हमारे सब खिलौने कुछ दिनों में रफ्ता रफ्ता
टूट जायेंगे,
के अगली बार जब इस गाँव में मेला इकट्ठा हो,
तो हम दोबारा आयेंगे।
--------------------------------------------

समंदर बर तरफ़ सेहरा बहुत है

समंदर बर तरफ़ सहरा बहुत है,
जहां तक नक्श हो दरिया बहुत है।

फ़सीले शब् पे सन्नाटा बहुत है,
लरज़ जाए कोई साया, बहुत है।

दरीचे खिड़कियाँ सब बंद कर लो,
बस इक अन्दर का दरवाज़ा बहुत है।

शबीहें नाचती हैं पानियों पर,
मुसल्लत झील पर कोहरा बहुत है।

कड़कती धूप में छत पर न जाओ,
झुलस जाने का अंदेशा बहुत है।

खुला बन्दे कबा उसका तो जाना,
बदन कुछ भी नही चेहरा बहुत है।

मेरी तकमील को तलअत जहां में,
वो इक टूटा हुआ रिश्ता बहुत है।
------------------------------

Friday, June 5, 2009

बस्ती जब आस्तीन के

बस्ती जब आस्तीन के साँपों से भर गयी,
हर शख्स की कमीज़ बदन से उतर गयी।

शाखों से बरगदों की टपकता रहा लहू,
इक चीख असमान में जाकर बिखर गयी।

सहरा में उड़ के दूर से आयी थी एक चील,
पत्थर पे चोंच मार के जाने किधर गयी।

कुछ लोग रस्सियों के सहारे खडे रहे,
जब शहर की फ़सील कुएं में उतर गयी।

कुर्सी का हाथ सुर्ख़ स्याही से जा लगा,
दम भर को मेज़पोश की सूरत निखर गयी।

तितली के हाथ फूल की जुम्बिश न सह सके,
खुशबू इधर से ई उधर से गुज़र गयी।
--------------------------------------

Tuesday, June 2, 2009

मिटटी उडी तो छत ने

मिटटी उडी तो छत ने अलग फ़ैसला किया,
हर ईंट को मकान की उससे जुदा किया।

मफ्लूज़ हो चुका था हवाओं का कुल निज़ाम,
इक शोर सा न जाने कहाँ से उठा किया।

शब् भर में सारे शहर के शीशे चटख गए,
जाते हुए ये बर्फ़ के मौसम ने क्या किया।

हम तो लिबास उतार के दरिया में हो लिए,
इक बादबां सा खून के अन्दर घुला किया।

तूने जो सब्ज़ बाग़ दिखाए थे गैर को,
तलअत तमाम उम्र मैं अंधा हुआ किया।

वो धूप है के

वो धूप है के चश्में तमन्ना में घाव है,
साया मेरी निगाह में जलता अलाव है।

कोई नही जो तोड़ के रख दे हवा के दाम,
हर आदमी के हाथ में कागज़ की नाव है।

जंगल को लौट जायें के अब हों ख़ला में गुम,
बस दो ही सूरतों में हमारा बचाव है।

अन्दर से देखता कोई उनकी तबाहियां,
बाहर तो कुछ घरों में बड़ा रख रखाव है।

यारो हम अपनी दौर की तारीख़क्या लिखें,
हर बाशऊर शख्स को ज़हनी तनाव है।

गिरने लगी है टूट के जां में फसीले शब्,
जज़्बात की नदी में गज़ब का बहाव है,

तलअत नज़ामें शम्स की बारीकियाँ न पूछ,
हर आँख में बस एक निह्थ्था अलाव है।

-----------------------------------------

Sunday, May 17, 2009

इक संग जब सुकूत की

इक संग जब सुकूत की मंजिल गुज़र गया,
सैली सदा के रंग फ़ज़ाओं में भर गया।

कतरा जो आबशार के दिल में उतर गया,
पानी का फूल बन के फ़ज़ा में बिखर गया।

उलझा मैं साँस साँस रगे-जां से इस कदर,
आख़िर मेरा वजूद मुझे पार कर गया,

साया सा इक इधर को ही लपका तो था मगर,
जाने कहाँ से हो के परिंदा गुज़र गया।

खिड़की पे कुछ धुँए की लकीरें सफर में थीं,
कमरा उदास धूप की दस्तक से डर गया।

छत पर तमाम रात कोई दौड़ता फिरा,
बिस्तर से मैं उठा तो वो जाने किधर गया।

खुशबू हवा में नीम के फूलों से यूँ उडी,
तलअत तमाम गाँव का नक्शा संवर गया।

------------------------------------

वो जो मुझमें इक आफ़ताब सा है

वो जो मुझमें इक आफ़ताब सा है,
आँख है या कोई सराब सा है।

पानियों की सदायें कौन सुने,
प्यास का जिस्म तो हुबाब सा है।

शाख़ - दर - शाख़ जल रहे हैं दरख्त,
सारा जंगल किसी गुलाब सा है।

जाने किसके लहू की बात चली,
कत्लगाहों में इज़्तराब सा है।

तोड़ आया हूँ आइनों के ही साए,
फिर भी इक अक्स हम रकाब सा है।

कांचघर हो की आसमां तलअत,
हर उजाला शिकस्ते ख़्वाब सा है।

बिस्तर की हर शिकन पे

बिस्तर की हर शिकन पे हवा का गिलाफ़ था,
वरना मेरा वुजूद तो पहले ही साफ़ था,

चारों तरफ़ थी गूंजती रेलों की पटरियां,
मैं जिन के दरमियान ख़ुद अपने ख़िलाफ़ था।

तुझ बिन हमारे पाँव को रस्ता न मिल सका,
पानी तो उस नदी का बड़ा पाक साफ़ था।

शीशे ब फैजे तश्ना लबीं टूटते रहे,
रिन्दों का मैकदे से अजब इन्हाराफ़ था।

पीते थे और घर का पता पूछते न थे,
बस इक यही गुनाह तो हम को मुआफ़ था,

सुलझा रहे थे लोग सब आपस की उलझने,
वरना जहाँ में कौन किसी के ख़िलाफ़ था।

मुझ को उठा के गोद मैं कैसा हुआ बलंद,
ओढे हुए बुजुर्ग जो आया लिहाफ़ था।

तलअत ग़ज़ल के नाम को पहुंचा तो किस तरहं,
यह आदमी तो एक अधूरा ज़िहाफ़ था।

--------------------------------------

कुछ ऐसे ढंग से टूटा है

कुछ ऐसे ढंग से टूटा है आइना दिल का,
हर एक अक्स नज़र आ रहा है टेढा सा।

हुआ जो शख्स ख़ुद अपनी ही कोख से पैदा,
वोह अपने क़त्ल की साज़िश में भी मुल्लव्विस था।

हरेक पहलू पे ख़ुद को घुमा लिया मैने,
किसी भी आँख का लेकिन न ज़विया बदला।

उछल के गेंद जब अंधे कुएं में जा पहुँची,
घरों का रास्ता बच्चों पे मुस्कुरा उठता।

खिराज क़र्ज़ की सूरत अदा किया हमने,
हमारे शाह ने फिर भी हमे गदा समझा,

मैं हर सवाल का तनहा जवाब था तलअत,
मेरे सवाल का लेकिन कोई जवाब न था।
------------------------------------

Saturday, May 16, 2009

रात किन जज़ीरों का

रात किन जज़ीरों का दर्द ले के आई है,
चांदनी की पलकों पर ओस थरथराई है,

शहर शहर फैला है, जंगलों का सन्नाटा,
जिस्म की फसीलों पर ख्वाहिशों की काई है।

धूप की परस्तिश में हमने बर्फ पहनी है,
ओस की तमन्ना में हमने आग खाई है।

मैने उस हवाघर में जब कभी कदम रक्खा,
शाम उतर के परबत से मुझमें आ समाई है।

है निगाह में रौशन सब्ज़ आँख का जादू,
हर दरख्त मंज़र है, हर दरख्त काई है।

दश्त के सफीरों का हश्र देख कर तलअत,
दूर तक समंदर पर खामुशी सी छाई है।
------------------------------

यूँ खड़ा है सोच में डूबा

यूँ खडा है सोच में डूबा वो छोटा सा दरख्त,
जनता हो जैसे सब मंसब हवाओं का दरख्त।

इक बिरहना चीख सन्नाटे पे थी सू महीत,
गुम्बदे शब में खडा था दूर तक तन्हा दरख्त।

हांफता सेहरा ज़मी पर करवटेँ लेने लगा,
चार छे पत्तों पे अटका रह गया सूना दरख्त।

चाँद तो शायद उफ़ुक से लौट भी आता मगर,
बन चुका था अपने ही साये का ख़ुद साया दरख्त।

धड धड़ कर गिर पड़ा बारिश में सारा ही मकां,
बच गया आँगन में चीलों को सदा देता दरख्त।

शेअर तलअत ज़िंदगी से हम को यूँ हासिल हुए,
जैसे मिटटी से गिज़ा पता है जंगल का दरख्त।

--------------------------------------------

Friday, May 15, 2009

लिख के पत्थर पर मुझे

लिख के पत्थर पर मुझे कल शाम आवारा हवा,
दे गयी तुम को हज़ारों नाम आवारा हवा।


अब कोई खिड़की हमारे शहर में खुलती नही,
है बहुत इस शहर में बदनाम आवारा हवा।


सिर्फ़ कागज़ ही नहीं पत्थर भी उडते हैं यहाँ,
कोई जब लता है ज़ेरे दाम आवारा हवा।


क्या कहें जंगल में कितने पेड़ नंगे हो गए,
थक थका कर सो गयी जब शाम आवारा हवा।

खाक़ से खुर्शीद तक जो कुछ कहीं भी देखिये,
बस के है हर चीज़ का अंजाम आवारा हवा।

सब अगर मेरी तरहं सोचें तो शायद तरहां बने,
वरना अब होगी न हरगिज़ राम आवारा हवा।

चूम कर सब के लबों को दे गयीं तश्ना लबीं,
ले गयी रिन्दों के सरे जाम आवारा हवा।

देखना अब के हमारे शहर से गुज़री अगर,
कर न पायेगी कहीं आराम आवारा हवा।

फिर खराबे में भटकने पर है आमादा हयात,
फिर मुझे रोके है जेरे बाम आवारा हवा।

आज तलअत फिर हम उसको ढूँढने निकले तो हैं,
देखिये देती है क्या इनआम आवारा हवा।
------------------------------------

पी कर उदास शाम का,

पी कर उदास शाम का, नीला धुंआ दरख्त,
मंज़र को दे रहे हैं सुनहरी ज़बां दरख्त।

मुठ्ठी में बंद अज़ल ही से शायद के थी बहार,
खुलते ही बन गयी हैं मेरी उंगलियाँ दरख्त।

जंगल में परबरीदा हवाएं हैं खेमाज़न,
अब मौसमों को ढूँढने जायें कहाँ दरख्त।

ख़ुद से डरा हुआ है तो इनको भी यूँ न देख,
क्या जाने किस ख़याल को दे देँ ज़बां दरख्त।

इम्शब फिर उस खंडर में चरागाँ की है ख़बर,
अंधे कुएं के पास उगा है जहाँ दरख्त।

नीचे नदी के पार उफुक पर झुकी है शाम,
ऊपर ज़रा सा चाँद है और दरमयां, दरख्त।

तलअत ज़मीं पे फिर कोई पत्ता टपक पड़ा,
सुनते कुछ और वरना मेरी दास्ताँ दरख्त।
-------------------------------------





टपकता है मेरे अन्दर लहू

टपकता है मेरे अन्दर लहू जिन आसमानों से,
कोई तो रब्त है उनका ज़मीं की दस्तानों से।

धुंआ उठने लगा जब संगे मरमर की चटानो से,
सितारों ने हमें आवाज़ दी कच्चे मकानों से।

समंदर के परिंदों साहिलों को लौट भी जाओ,
बहुत टकरा लिए हो तुम हमारे बादबानोँ से

यह माना अब भी आंतों में कही तेजाब है बाकी,
निकल कर जाओगे लेकिन कहाँ बीमारखानों से।

वो अन्दर का सफर था या सराबे आरजू यारो,
हमारा फासला बढता गया दोनों जहानों से।

लचकते बाजुओं का लम्ज़ तो पुरकैफ़ था तलअत,
मगर वाकिफ न थे हम पत्थरों की दस्तानों से।

----------------

घाट जब उतरी हमारी

घाट कब उतरी हमारी नाव भी,
धुल गए जब साहिलों के चाव भी।

नद्दियों तुम भे ज़रा दम साध लो।
भर चुके कच्चे घडों के घाव भी।

आरज़ू ग़र्काब होती देख कर,
बह गये कच्चे घडों के घाव भी।

मैं तो मिटटी का खिलौना ही सही,
तुम मेरी खातिर कभी चिल्लाओ भी।

भोग ही लेते किए की हम सज़ा,
काश चल जाता हमारा दाव भी।

बज़्म से जाना ही था वरना हमें,
क्या बुरा था आप का बर्ताव भी।

तुम यहीं सर थाम कर बैठे रहो,
शहर में तो हो चुका पथराव भी।

यह ठिठुरती शाम यह शिमला की बर्फ।
दोस्तों! जेबों से बाहर आओ भी।

तन बदल कर हमसे तलअत ने कहा,
क्यों खडे हो अब यहाँ से जाओ भी।

-------------

Tuesday, May 5, 2009

कौन पकाए उनके नेक

कौन पकाए उनके नक इरादों को,
कच्ची शोहरत मार गयी शहज़ादों को।

रंग बिरंगी कीलें उगीं हवाओं में,
दिन जब सौंपा हमने तेरे वादों को।

अब शीशे के ऐसे रौशनदान कहाँ,
दिल में जो रख लें पत्थर सी यादों को।

जाने कैसे वक्त नदी का पुल टूटा,
लौट लिए सब पानी की फरियादों को,

साहिल काला जादू सब्ज़ हवाओं का,
नीले खेल सिखाये सुर्ख़ मुरादों को।

तख्ती तैर रही है काले पानी पर,
तलअत खाक मिले इज्ज़त उस्तादों को।

--------------
-------

Monday, May 4, 2009

उसे भी चाहनां घर से भी कामरां होना,

उसे भी चाहना घर से भी कामरां होना,
कहाँ चराग़ सा जलना कहाँ धुआं होना।

लहू में जाग उठ्ठी है फिर आतिशे इम्कां
हरेक ज़ख्म को लाज़िम है जाविदां होना।

हम एक बुत की परस्तिश में यूँ हुए पत्थर,
ज़बीं का नाम हुआ संगे आसतां होना।

नदी की राह में सहरा न था कोई वरना,
किसे था ज़र्फ़ समंदर की दास्ताँ होना।

मेरा तो होना न होना सब एक सा ठहरा,
हुआ है खूब मगर आप का यहाँ होना।

हमें भी छू के गुज़रती तो है हवा लेकिन,
यह हाथ भूल चुके हैं अब उंगलियाँ होना,

चटख गया है बहारों का आसमाँ तलअत,
गुलों ने सीख लिया जब से तितलियाँ होना।
---------------------------------------------

बदन उसका अगर चेहरा नहीं है,

बदन उसका अगर चेहरा नहीं है,
तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है।

दरख्तों पर वही पत्ते हैं बाकी,
के जिनका धूप से रिश्ता नहीं है।

वहां पहुँचा हूँ तुमसे बात करने,
जहाँ आवाज़ को रस्ता नहीं है।

सभी चेहरे मकम्मल हो चुके हैं ,
कोई अहसास अब तन्हा नहीं है।

वाही रफ़्तार है तलअत हवा की,
मगर बादल का वह टुकडा नहीं है।
----------------------------------

पूछते हो तुम की हम पर

पूछते हो तुम के हम पर आस्मां कैसा रहा,
प्यास पर गोया कि पानी का निशां कैसा रहा।

एक चौखट चार ईंटों पर खड़ी हिलती रही,
सर झुकाने को हमारा आस्तां कैसा रहा।

अपनी अपनी ज़िंदगी थी और अपनी अपनी मौत,
अब के अपने शहर में अमनों अमां कैसा रहा।

मुद्दतों से हूँ ज़माने से किनारा कश मगर,
तुम जो मिल जाओ तो पूछूं सब कहाँ कैसा रहा।

रात अपने चोर दरवाज़े पे जब अस्तक हुई,
इक हयूला सा हमारे दरम्यां कैसा रहा।

हासिले सहरा नवरदी और कुछ होता तो क्यूं?
और इक मंज़र पसे मन्ज़र निहाँ कैसा रहा।

हर नफस यूँ तो अज़ल से था अबद का इख्तिलात,
इक शिकस्ता पल बिखर कर दरमियाँ कैसा रहा।

ज़ह्न से पैदा हैं तलअत नित नए सूरज ख़्याल,
धूप कैसी भी थी लेकिन सायेबां कैसा रहा।
------------------------------------------

न किस्त किस्त में यूँ

न किस्त किस्त में यूँ दांव पर लगा मुझको,
मैं तुझको हार चुका हूँ तू हार जा मुझको।

सुलग रहा हूँ अज़ल से यूं ही ज़माने में,
है तेरे पास कोई अश्क तो बुझा मुझको।

अजीब रंग थे उसकी ज़हीन आंखों में,
वो इक नज़र में कई बार पड़ गया मुझको।

मेरे वुजूद के लाखों सुबूत थे लेकिन,
कोई दिमाग़ भी साबित न कर सका मुझको।

न पूछ यास का आलम की तेरी दुनिया में,
तेरा ख्याल भी जिंदा न रख सका मुझको।

न आँख आँख रही है न दिल ही दिल तलअत,
किसी के अह्द ने पत्थर बना दिया मुझको।
--------------------------------------

जब कोई सर किसी

जब कोई सर किसी दीवार से टकराता है,
अपना टूटा हुआ बुत मुझको नज़र आता है।

ख़ूब निस्बत है बहारों से मेरी वह्शत को,
फूल खिलते हैं तो दामन का ख़्याल आता है।

तुम जब आहिस्ता से लब खोल के हंस देते हो,
एक नग्मां मेरे अहसास में घुल जाता है।

कितने प्यारे हैं तेरे नाम के दो सादा हरफ़,
दिल जिन्हें गोशा-ए-तन्हाई में दोहराता है।

आप से कोई तआरुफ़ तो नहीं है लेकिन,
आप को देख के कुछ याद सा आ जाता है।

हाय क्या जानिए किस हाल में होगा कोई,
आज रह रह के जो दिल इस तरह घबराता है।

आप कहते हैं तो जी लेता है तलअत वरना,
कौन कमबख्त यहाँ साँस भी ले पाता है।
-------------------------------------------

Monday, April 27, 2009

बुझा है इक चिरागे दिल

बुझा है इक चिरागे दिल तो क्या है,
तुम्हारा नाम रौशन हो गया है ।

तुम्हीं से जब नही कोई तआल्लुक
मेरा जीना न जीना एक सा है।

तेरे जाने के बाद ए दोस्त हम पर,
जो गुजरी है वो दिल ही जानता है।

सरासर कुफ्र है उस बुत को छूना,
वो इस दर्जा मुक़द्दस हो गया है।

कहीं मुंह चूम ले उसका न कोई,
वो शायद इस लिए कम बोलता है।

हमी ने दर्द को बख्शी है अज़मत,
हमी को दर्द ने रुसवा किया है।

हयात इक दार है तलअत की जिस पर,
अज़ल से आदमी लटका हुआ है।
------------------------------------

Saturday, April 25, 2009

मिला था कल जो हमें,

मिला था कल जो हमें बहरे - बेकरां की तरहं
भटक रहा है वो अब दशत में फुगाँ क तरहं।

हमारे बाद ज़माने में जुस्तजू वालो,
करोगे याद हमें सई ये रायगाँ की तरहं।

हम उसकी आँख में ज़र्रे से भी हकीर सही,
हम उसके दिल में खटकते हैं आस्मां की तरहं।

वो कैसे कैसे गुलामी के दौर याद आए,
मिला जो हमसे कोई शख्स हुक्मरां की तरहं।

मेरी खुदी का  स्वयंवर भी क्या स्वयंवर था
मेरी ही ज़ात ने  तोड़ा मुझे कमां की तरहं 

उसी के नाम की तख्ती थी सब किवाडों पर,
जो उठ चुका था किराये पे ख़ुद मकां की तरहाँ।

अब एक बर्फ का सहरा है और हम तलअत,
सुलग रहे हैं समन्दर की दास्ताँ की तरहं।
------------------------------------------

दिल कहाँ दरिया हुआ

दिल कहाँ दरिया हुआ, दीवार कब साबित हुआ,
प्यास आंखों में उतर आयी तो सब साबित हुआ।

मैं तो मिट्टी हो गया उसके लहू की बूँद पर,
वो मेरी मिट्टी से यूँ उट्ठा के रब साबित हुआ।

रात की बारिश ने धो डाले सभी के इश्तहार,
कौन कितने पानियों में है ये अब साबित हुआ।

लोग फिर काले दिनों के नाम ख़त लिखने लगे,
धुप से उनका तआल्लुक, बेसबब साबित हुआ।

हम चुरा लाये थे माबद से ख़ुदा सुन कर जिसे,
वो किसी टूटे हुए बुत का अक़ब साबित हुआ।

रंग तक ला कर हुआ महफ़िल से ख़ुद ही मुनहरिफ़,
कौन तलअत सा भी यारो ! बे अदब साबित हुआ।
------------------------------------------------

न जागने की इजाज़त न हमें सोने की,

न जागने की इजाज़त न हमें सोने की,
कहाँ से बात उठायें अज़ान होने की।

तमाम घाट के पानी पे फिर गई काई,
जब आयी बारी हमारी लिबास धोने की।

हम उसके शहर के रंगों से चुप गुज़र जाते,
यह किसने बात चला दी हमें भिगोने की।

कहाँ धुँए की परस्तिश में जा फंसे यारो,
यही तो रुत थी ख़यालों में आग बोने की।

हसारे ज़ात के जिन्दानियों! उठो ! जागो,
यहाँ किसी को इजाज़त नहीं है सोने की।

अभी  तो शिव के गले  से वो विष नहीं उतरा
तुम्हें पड़ी है समंदर को फिर बिलोने की ।
वो मेरी पीठ पर रख कर मेरा ही सर बोला,
किसे पड़ी है किसी की सलीब ढोने की 

मैं लम्स लम्स बिखरता चला गया तलअत,
मिली जो रात उसे रूह में समोने की।
--------------------------------------

देखो तो हमें दिल ने

देखो तो हमें दिल ने कैसी ये सज़ा दी है,
आइना वहीं पर है दीवार हटा दी है।

अल्फाज़ के जादू ने सर काट दिया बन का,
तहरीर यह मिटटी की किस शै ने जला दी है।

छूते ही तुम्हें हम तो अन्दर से हुए खाली,
बर्तन ने कहीं यूँ भी पानी को सदा दी है।

अब लम्स अंधेरे की ईंटों का है मुत्कल्लम,
नाखूं ने मेरे बढ़ कर हर बात बढ़ा दी है।

लग जयेंगी आखें भी इक रोज़ किनारे से,
खुशबू तो तेर ख़त की दरिया में बहा दी है।
------------------------------------------

जब भी हम कुछ देर सुस्ताने लगे हैं.

जब भी हम कुछ देर सुस्ताने लगे हैं,
शहर पर आसेब मंडराने लगे हैं।

किस का साया आ पड़ा सिहने चमन पर,
क्यारी क्यारी फूल मुरझाने लगे हैं।

आप की उजली हंसी जब भी सुनी है 
मंदिरों  के नाम याद आने लगे हैं 

अब यहाँ कोई नहीं सुनता किसी की,
अपना अपना राग सब गाने लगे हैं।

किस ने चौराहे पे क्या टोना किया है,
आते जाते लोग चिल्लाने लगे हैं।

फिर ज़मीं की नाफ़ टेढी हो चली है,
फिर समंदर झूम कर गाने लगे हैं।

आस्मां लोहे का छल्ला है जिसे हम,
हर छ्टी उंगली में पहनाने लगे हैं।

नींद अब तलत हमें आए न आय,
अधखुली आंखों में ख्वाब आने लगे हैं।
------------------------------------

पत्थर से लम्स फूल से

पत्थर से लम्स फूल से खुशबू निकाल दे,
बाकी जो कुछ बचे वो मेरे नाम डाल दे।

क्या फ़र्क पानियों में है इसका न रख ख़याल,
दरिया की नेकियों को समंदर में डाल दे।

सम्तों के रुख पलट के सितारों से बात कर,
तिरछा पड़े जवाब तो सीधा सवाल दे।

नारा बना खड़ा हूँ मैं कब से ज़मीर का,
कोई मुझे भी आके हवा में उछाल दे।

बुकशेल्फ़ से कमीज़ का रिश्ता तुझे बताएं,
लेकिन ज़रा गले से तू टाई निकाल दे।

पूछे जो कोई कौन है तलत जुबां न खोल,
मिटटी ज़रा सी लेके हवा में उछाल दे।
----------------------------

Saturday, April 18, 2009

सूरज को डूबने से

सूरज को डूबने से बचाओ कि गावों में,
तालाब सूख जाएगा बरगद की छाओं में।

उतरे गले से ज़हर समंदर का तो बताएं
गंगा कहाँ छिपी है हमारी जटाओं में।

क्या ही बुरा था नूर का चस्का कि दोस्तो,
हम जल बुझे हयात कि अंधी गुफाओं में।

सर से कुछ इस तरह वो हथेली जुदा हुई,
सुर्खी सी फैलने लगी चारों दिशाओं में।

छुटता नहीं है जिस्म से यह गेरुआ लिबास,
मिलते नहीं हैं राम भरत को खडावोँ में।

दिल तो खुशी के मारे परिंदा सा हो गया,
देखा जो हमने चाँद को छुप कर घटाओं में।

रोज़े अज़ल खुदा से अजब वास्ता पड़ा,
तुझ बिन भटक रहे हैं हम अब तक खलाओ में।

तलअत हरेक शख्स कहीं खो के रह गया,
गूंजे जब आन्सुओं के तराने फज़ाओ में।
--------------------------------------

Friday, April 17, 2009

प्यासे रंग सुलगती आंखे

प्यासे रंग सुलगती आंखे मंज़रे-शम्स उठायें क्या,
धूल अटी वादी के परिंदे पार नदी के जायें क्या।

टूटे पुल के पास नदी में चाँद अभी तो डूबा है,
शाख़ बुरीदा पेड़ को जुगनू शब् का गीत सुनाएँ क्या।

मुमकिन था सब एक नज़र में साफ़ दिखाई दे जाता,
लेकिन हम सब सोच रहे थे आँख से बाहर आयें क्या।

दुश्मन की दहलीज़ नहीं थी जंजीरे अहसास तो थी,
वरना लहू के रंग तक आकर हम और वापिस जायें क्या।

तिरछी पैनी काट नज़र की पावों के तलवों तक पहुँची,
धड़कन धड़कन डूबते दिल का हाल लबों पर लायें क्या।

तेरी गली से अपने दर तक खून थूकते लोटे हैं,
क़र्ज़ तेरी बीमार सदा का अब हम और चुकायें क्या।

साहिल पर वो हाथ हवा में हिलते हिलते झूल गया,
आज सफ़र के नाम पे तलत हम पतवार उठायें क्या।
----------------------------------------------------

Tuesday, April 14, 2009

शाम ढले

शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंधनवार नए,
सतरंगीं सुबहों के खिंचते खुलते बंधते तार नए।

ख्वाहिश जैसी उन आंखों में चाँद न था चौपाटी थी,
और लबों पर साफ़ लिखे थे लज्ज़त के इज़हार नए।

ताज महल से उस गुम्बद पर चाँद कहाँ जा कर डूबा,
खोल दिए जब मेरे अन्दर उसने मेरे मज़ार नए।

खोलो हाथ! चले पुरवाई, आने दो बारिश, भीगें
बर्के बदन से झाँक रहे हैं रौशन रंग हज़ार नए।

तलअत यह दुःख तो मेहनत की रोटी का इक हिस्सा है,
बेच के अपने तन के कपडे घर में रख औज़ार नए।
---------------------------------------------------