Sunday, May 17, 2009

वो जो मुझमें इक आफ़ताब सा है

वो जो मुझमें इक आफ़ताब सा है,
आँख है या कोई सराब सा है।

पानियों की सदायें कौन सुने,
प्यास का जिस्म तो हुबाब सा है।

शाख़ - दर - शाख़ जल रहे हैं दरख्त,
सारा जंगल किसी गुलाब सा है।

जाने किसके लहू की बात चली,
कत्लगाहों में इज़्तराब सा है।

तोड़ आया हूँ आइनों के ही साए,
फिर भी इक अक्स हम रकाब सा है।

कांचघर हो की आसमां तलअत,
हर उजाला शिकस्ते ख़्वाब सा है।

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