Tuesday, June 16, 2009

हिचकियाँ

हम नशे में गलियां देती हवा से लड़ रहे थे,
हम नशे में थे
हवा जब गलियां देती हुयी गुज़री,
तो हम खुल कर हंसे, हंसते रहे।
लेकिन,
तभी तूने हमारे नाम से हम को पुकारा,
डूबने वाले के जैसे हाथ पर ला कर
कोई रख दे किनारा।

और तब हम यक बयक रोने लगे,
रोते रहे, रोते रहे थे।
क्यों की जो बाकी था
सब आंसू थे या आंखे की जो कुछ था,
वो तेरे नाम की बस हिचकियाँ सी खा रहा था,
और तू हमे छू कर,
हवा के साथ वापिस जा रहा था।
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मगर नीचे जहाँ मैं हूँ

यहाँ से सर उठा कर
आस्मां को देखना अच्छा तो लगता है,
मगर नीचे जहाँ मैं हूँ,
वहां से और नीचे,
कितना कुछ कुहरे में डूबा है।
तुम्हारे आंसुओं की याद में
भीगी हवा पगडंडियों से लौट कर
मुझ से लिपटती है,
तो मैं यकलख्त उस मदिर से आती
घंटियों की नाद सुनता हूँ जहाँ
तप, ध्यान, पूजा, साधना, आराधना
आठों पहर चलते ही रहते हैं।

दरख्तों का इकहरा झुंड
जो उस परबत के माथे पर तिलक सा चमचमाता है,
मुझे उस डूबते सूरज के साये में बुलाता है,
जो मन्दिर के शिखर पर
आरती के थाल सा कब से आवेज़ां है।
मुझे लगता है
मैं भी आस्मां के साये में
इस डूबते सूरज सा तन्हा हूँ।
तभी चुपके से कोई कान में
आकर ये कहता है।
"उधर देखो !
उफ़ुक से ता उफ़ुक सनाएई ऐ कुदरत
पर अफशां है।
मगर जिस मोड़ पर तुम हो
वहीं दीवारे - जिंदा है"।

यहाँ से सर उठा कर
आस्मां को देखना अच्छा तो लगता है,
मगर नीचे जहाँ मैं हूँ।

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सिसीफ़स के बाद

रात के गहरे सन्नाटे में,
अक्सर नींद उचट जाती है,
दुःख का वो पहाड़, जिसके नीचे मैं दब कर,
साँस साँस उलझा होता हूँ,
मेरे घर की दीवारों से,
गांव गली क्या, लगता है पूरी दुनिया तक
फैल चुका है।
और उसके पीछे से एक भयानक चेहरा
यहाँ वहां सब देख रहा है।

उसे देख कर मेरे जबडे कस जाते हैं,
और मुट्ठियाँ तन जाती हैं।
जी करता है ज़ोर ज़ोर से मैं चिल्लाऊं,
सब को अपने पास बुलाऊँ।
और अगर कुछ लोग मेरी आवाज़ पे आयें,
तो सब मिल कर,
इस पहाड़ के अन्दर तक हम जगह जगह बारूद बिछाएं,
और उसे पल भर में उड़ायें।

और तभी मेरी बहें लम्बी हो आकर,
उस पहाड़ की चोटी को ऊपर तक जा कर छू आती हैं।
कितने बड़े बड़े काँटों से,
उसकी पीठ लदी होती है।
और मुझे दुःख के पहाड़ का दुःख आता है।
लहूलुहान उँगलियों से जो उसकी पीठ को सहलाता है।
और मुट्ठियों में मेरी यकलख्त कहीं से,
खुशबू सा कुछ भर जाता है।
जो मेरी दोनों आंखों को गंगा जमुना कर जाता है।
दुःख का वह पहाड़ धुआं हो कर तब,
दूर अंधेरे के उस पार उतर जाता है।

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Monday, June 15, 2009

मिटटी की तहें

शहर का तालाबजाने कब भरेगा?
नहर का पानी सुना है दे रहे हैं।
नहर का पानी मगर आने से पहले ही
कहीं यह गन्दगी से भर न जाए।

अब यहाँ जो भी दिखायी दे रहा है।
सब यहाँ ऐसा नहीं था।
यह वही तालाब है जिसमें कभी,
हर सुबह कितने ही कँवल खिलते रहे हैं।
धूप, जाड़ा, आसमां, ताज़ा हवा,
बाहें पसारे,
इस जगह मिलते रहे हैं।

मैं बहुत छोटा था शायद,
कुछ कहीं था भी की बस
यूँ ही सा था मैं।
बारिश आती, और हम बच्चे,
महल्लों से निकल कर,
भीगते किलकारियां भरते,
गली, बाज़ार, चौराहों को पीछे छोड़ते,
भागे चले जाते,
कि बारिश में सब इस तालाब में
मिल कर नहायें।
एक दूजे को छुएं,
पानी में तैरें, छप छपाएं।

अब कई दिन बाद आया हूँ
तो देखा है,
यहाँ सब किस कदर बदला हुआ है।
अब यहाँ दल दल है, keechad है,
फज़ा में गंदगी है।
उस तरफ़ का एक हिस्सा,
शहर में जो जानवर मरता है,
उस की खाल अलग करने के काम आने लगा है,
गिध्ध कव्वों और कुत्तों को,
बहुत बहाने लगा है।
दरमियाँ
अब भी कहीं कुछ है,
कि ज्कई के नीचे सुगबुगाता सा है,
पुराने मौसमों की याद को थामें हुए है।

कोई कहता है उसे मरघट से जोड़ा जा रहा है,
और कोई घाट के मन्दिर के बारे में
यह कहता है
कि "तोडा जा रहा है"।
कुछ का कहना है
कि जब चारों तरफ़
यह गन्दगी से भर उठे
तो एक दो मिटटी की हल्की सी
तहे दे कर
इसे इक खूबसूरत पार्क में
तब्दील कर दें।
या अगर सरकार को मंज़ूर हो तो,
इस जगह को बेच डाले
ताकि लोग
अपने लिए इस शहर में
कुछ घर बनालें।