रात के गहरे सन्नाटे में,
अक्सर नींद उचट जाती है,
दुःख का वो पहाड़, जिसके नीचे मैं दब कर,
साँस साँस उलझा होता हूँ,
मेरे घर की दीवारों से,
गांव गली क्या, लगता है पूरी दुनिया तक
फैल चुका है।
और उसके पीछे से एक भयानक चेहरा
यहाँ वहां सब देख रहा है।
उसे देख कर मेरे जबडे कस जाते हैं,
और मुट्ठियाँ तन जाती हैं।
जी करता है ज़ोर ज़ोर से मैं चिल्लाऊं,
सब को अपने पास बुलाऊँ।
और अगर कुछ लोग मेरी आवाज़ पे आयें,
तो सब मिल कर,
इस पहाड़ के अन्दर तक हम जगह जगह बारूद बिछाएं,
और उसे पल भर में उड़ायें।
और तभी मेरी बहें लम्बी हो आकर,
उस पहाड़ की चोटी को ऊपर तक जा कर छू आती हैं।
कितने बड़े बड़े काँटों से,
उसकी पीठ लदी होती है।
और मुझे दुःख के पहाड़ का दुःख आता है।
लहूलुहान उँगलियों से जो उसकी पीठ को सहलाता है।
और मुट्ठियों में मेरी यकलख्त कहीं से,
खुशबू सा कुछ भर जाता है।
जो मेरी दोनों आंखों को गंगा जमुना कर जाता है।
दुःख का वह पहाड़ धुआं हो कर तब,
दूर अंधेरे के उस पार उतर जाता है।
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