Saturday, July 11, 2009

हिमाचल की याद

हल्के नीले रंग का मेरा नया ऊनी पुलोवेर
और यह सर्दी का मौसम,
इन दिनों जब पर्बतों पर बर्फ गिरती है
तो जाने क्यों मुझे
भेड़ों के बच्चे याद आते हैं,
और मेरी सोच
उन भेड़ों की नंगी पींठ छू कर लौटती है
जिन के जिस्मों से
अभी तक उन उतारी जा रही है,
वो चरगाहें कहाँ होंगी
के जिन में
धुंध के नीचे सभी कुछ
सोया सोया जग रहा है
मैं भी उन भेड़ों के बच्चों में से
कोई एक हूँ,
जाने मुझे क्यों लग रहा है।

--------------------------------

अग्ज़ास्ट फैन

मैं आवारा तबीयत तो नही
लेकिन हमेंशन
अपनी महवर पर अकेले घूमते रहना
मुझे अच्छा नही लगता।
यहाँ तो यूँ भी चारों ओर बस मकड़ी के जाले
धूल मिटटी और अँधेरा है ।
यह छोटा सा दरीचा,
जिस के अन्दर,
इन सभी के साथ मैं बरसों से जिंदा हूँ
हमारा सब का मुश्तरका बसेरा है।

इधर बाहर मेरे मुंह की तरफ़
आकाश खुलता है
तो पीछे एक बूढा रेस्तरां
जो नित नयी तहज़ीब के सांचे में ढलता है,
वो शायद सो रहा है,
और मेरी आवाज़ सन्नाटे पे तारी है,
मेरी आवाज़ गोया
सो रहे अजगर के मुंह से साँस जारी है।
अभी कुछ देर पहले तक
वहां सब रौशनी,
हर मेज़ पर लोगों का जमघट था,
मगर अब चंद खाली कुर्सियां
मेज़ों के सीनों से लगीं आराम करती हैं
यह सब हर सुबह उठ कर
आने वाले ग्राहकों के नाम पर
बनती संवारती हैं

मैं काफी थक गया हूँ
अब जो थोड़ी देर को बत्ती चली जाए
तो मुझको नींद आ जाए।
मैं, आज आंखों में
उस बच्चे की भोली मुस्कराहट ले के सोऊंगा,
जो कल इस रेस्तरां में
अपनी मां के साथ के साथ पहली बार आया था,
मेरी आवाज़ पर हैरतज़दा हो कर
जब उसने मां से कुछ पूछा
तो उसने यूँ बताया था,
की "बेटे! आदमी की साँस,
रोटी की महक, सालन की खुशबू
और सिगरेट का धुआं
इक तरहां से कैद हो जायें
तो यह पंखा उन्हें अपनी ज़रिये
खैंच कर
ताज़ा हवा का रास्ता हमवार करता है,
यह पंखा जानते हो आदमी से प्यार करता है।"
यह सुन कर फूल से बच्चे के चेहरे पर
न जाने कौन से जन्मों की
मीठी मुस्कराहट जाग उठ्ठी थी
मेरे दिल से भी जिसको देख कर
इक आग उठ्ठी थी ।

उसी इक आग की लौ में
मैं अपने आप को शायद कभी पहचान पाऊँगा
मगर इस धूल मिटटी और अंधेरे से
भला कब तक निभाऊंगा ।

मैं काफी थक गया हूँ,
अब जो थोड़ी देर को बत्ती चली जाए
तो मुझको नींद आ जाए,
मुझे कल सुबह
फिर ताज़ा का रास्ता हमवार करना है
की उस बच्चे की मीठी मुस्कराहट के लिए
इस ज़िंदगी से प्यार करना है।

-----------------------------------------



Sunday, July 5, 2009

टूटे सितारे

चाँद में बैठी हुयी बुढ़िया का चरखा चल रहा है,
धागा धागा रौशनी,
जिन रास्तों से,
आस्मां को जा रही हिं ,
यह वही टूटे सितारे जानते हैं,
जिन के हाथों की लकीरें
आज भी बुढ़िया की जेबों में पड़ीं हैं,
और जिनकी आरज़ूयें
आस्मां से भी बड़ी हैं
हाँ मगर मादूम हैं जो,
अपने होने का ग़लत मफहूम हैं जो।

-----------------------------

तहजीब का सफर

झुलसती दोपहर,
नंगे बदन बच्चे भिखारन के
सभी के हाथ में किश्कौल,
दायीं, सम्त का आकाश खाली है,
सरों पर धूप है, या
एक बेआवाज़ गाली है,
कभी किश्कौल उठ उठ कर
फिज़ा का मुंह चिढाते हैं,
कभी बच्चे उन्हें गंदले सरों पर रख के
तबला सा बजाते हैं।
सफर तहजीब का सड़कों पे जारी है,
मगर इस शहर में,
अंधी भिखारन के लिए
अब दो कदम चलना भी भारी है।

ज़रा सी छाँव आयी
रुक गए, चारों तरफ़ देखा;
ज़रा दम साध ले
तो फ़िर कहीं आगे का कुछ होगा।
कहीं से कोई सिक्का
फ़िर किसी किश्कौल में आए,
तो यह अंधी भिखारन
अपना डेरा आगे ले जाए।

----------------------------

ताना बाना

शोर, सन्नाटे के बीजों को
ज़मीं पर रौंदता है
और कहता है की "जाओ !
जिस तरहां मैं इस जगह लाया गया हूँ,
तुम भी जाकर
अपनी कोई दूसरी दिनिया बसाओ!'

और सन्नाटा,
ज़मीं का दर्द सीने से लगाये
लड़खड़ा कर डोलता है
खुरदरे कम्बल से
इक खामोश पैकर बोलता है ,
मिल्ताज़ी आंखे
की जैसे ज़र्द चेहरा पूछता हो,
"शोर भाई!
हम तेरे कहने पे
अपना धागा धागा साथ ले कर जा रहे हैं ।
बाद में,
लोगो को लफ्जों की ज़रूरत आ पडी तो
तुम अकेले क्या करोगे ?"

--------------------------------------

तपस्वी बैल

सींग दायां हो कि बायाँ
बैल को तो,
जिस किसी सूरत, ज़मीं को
सर से ऊंचे थामना है।
कुछ कभी गर्दन बचाने की
अगर फुर्सत मिली भी
तो ज़मीं पर,
ज़लज़ला, सैलाब, तूफां, क्या न आया
और फ़िर कुछ आसमानी देवताओं ने,
उसे आ कर डराया ।
"यूँ न होना, यूँ न करना
अपनी हर हरकत से डरना।
वरना,
इस धरती के बाशिंदों की रूहें
चीख कर तुझ से लिपट जायेंगी
जिन की बद्दुआ से
ता अबद तुझ को जहन्नुम की
सुलगती आग में जलना पडेगा"!
तब से वह इक सींग पर धरती उठाये
दम बखुद सीधा खड़ा है,
बैल गोया वूँ नही तो यूँ जहन्नुम में पड़ा है।

----------------------------------------

मैं आया

बिछ्ड्ते वक्त ,
पिछली मर्तबा उसने कहा था
"तुम ज़रूर आना !"
कहा था
"वक्त मिलते ही ज़रूर आना"!
मैं आया
किस तरहं आया
न जाने किस तरहं आया?
मगर अब
उसकी आंखों से
मेरी पहचान गायब है
कहाँ जाऊं?
मैं जाऊं?
लौट जाऊं?
लौटना मेरा मुक्कद्दर है।
मगर, ऐ काश !
बस इक बार वह आंखें उठा कर देख ले
और सिर्फ़ इतना पूछ ले मुझसे
"तुम आए हो ?"
के पिछली मर्तबा उसने कहा था
"तुम ज़रूर आना!"

------------------------------