Saturday, June 6, 2009

हम, खिलौने और हुज़ूर अब्बा की उंगली

नए कपडे पहिन कर
आज हम,
इस गाँव के मेले में पहली बार आए हैं,
हुज़ूर अब्बा हमें उंगली थमाए हैं।
वो पहले से हमें,
मेले के बारे में बहुत समझा के लाये हैं।
हम उनके हुक्म की तामील में तो हैं,
मगरफिर भी,
शरारत, दायें बाएं साथ चलती है,
कभी मैं भागता हूँ और कभी
छोटि बहन आगे निकलती है।

बहुत से लोग हैं,
दंगल, तमाशे, खुर्दनी अश्या,
हजारों तरह की
रोजाना इस्तेमाल की चीज़ें,
मगर अपने लिए तो
बस यही,
दो चार दस उम्दा खिलौनों का तमाशा है,
हुज़ूर अब्बा ने हम दोनों की
हर जिद्द को,
नवाज़ा और तराशा है।

पुरानी एक मस्जिद
और थोडे फासले पर
एक छोटा सा शिवाला है।
इन्ही सब की बदौलत
आदमी का बोल बाला है।
यहाँ वरना
जो मेला साल में दो बार भरता है,

न जाने किन बहीमाना फरेबों से गुज़रता है.

सभी कुछ मुतमईन सा चल रहा है
फिर भी लगता है,
कही कुछ लोग आपस में झगड़ते हैं,
कहीं चुपचाप चलते
और कहीं इक दूसरे के पाँव पड़ते हैं।
मगर हम इन सभी से
बेन्याज़ा गुज़रते हैं।
हम अपनी खुशदिली का
भीड़ के चेहरे से
अंदाजा लगते हैं,
किसी भी आईने के सामने
ख़ुद को झलक भर देखते हैं,
खिलखिलाते हैं।
यूँही, अब्बा की उंगली थाम कर
जब आज हम मेले से लौटेंगे,
यो अम्मी से कहेंगे
"देखो ! अम्मी!
आज हम अपने लिए क्या लेके आए हैं।"

वो हम को देख कर सारे दुखों को भूल जायेंगी,
अजां का वक्त होगा
और हमें कुरआन की कोई नयी आयत सिखाएंगी।

हमारे सब खिलौने कुछ दिनों में रफ्ता रफ्ता
टूट जायेंगे,
के अगली बार जब इस गाँव में मेला इकट्ठा हो,
तो हम दोबारा आयेंगे।
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समंदर बर तरफ़ सेहरा बहुत है

समंदर बर तरफ़ सहरा बहुत है,
जहां तक नक्श हो दरिया बहुत है।

फ़सीले शब् पे सन्नाटा बहुत है,
लरज़ जाए कोई साया, बहुत है।

दरीचे खिड़कियाँ सब बंद कर लो,
बस इक अन्दर का दरवाज़ा बहुत है।

शबीहें नाचती हैं पानियों पर,
मुसल्लत झील पर कोहरा बहुत है।

कड़कती धूप में छत पर न जाओ,
झुलस जाने का अंदेशा बहुत है।

खुला बन्दे कबा उसका तो जाना,
बदन कुछ भी नही चेहरा बहुत है।

मेरी तकमील को तलअत जहां में,
वो इक टूटा हुआ रिश्ता बहुत है।
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Friday, June 5, 2009

बस्ती जब आस्तीन के

बस्ती जब आस्तीन के साँपों से भर गयी,
हर शख्स की कमीज़ बदन से उतर गयी।

शाखों से बरगदों की टपकता रहा लहू,
इक चीख असमान में जाकर बिखर गयी।

सहरा में उड़ के दूर से आयी थी एक चील,
पत्थर पे चोंच मार के जाने किधर गयी।

कुछ लोग रस्सियों के सहारे खडे रहे,
जब शहर की फ़सील कुएं में उतर गयी।

कुर्सी का हाथ सुर्ख़ स्याही से जा लगा,
दम भर को मेज़पोश की सूरत निखर गयी।

तितली के हाथ फूल की जुम्बिश न सह सके,
खुशबू इधर से ई उधर से गुज़र गयी।
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Tuesday, June 2, 2009

मिटटी उडी तो छत ने

मिटटी उडी तो छत ने अलग फ़ैसला किया,
हर ईंट को मकान की उससे जुदा किया।

मफ्लूज़ हो चुका था हवाओं का कुल निज़ाम,
इक शोर सा न जाने कहाँ से उठा किया।

शब् भर में सारे शहर के शीशे चटख गए,
जाते हुए ये बर्फ़ के मौसम ने क्या किया।

हम तो लिबास उतार के दरिया में हो लिए,
इक बादबां सा खून के अन्दर घुला किया।

तूने जो सब्ज़ बाग़ दिखाए थे गैर को,
तलअत तमाम उम्र मैं अंधा हुआ किया।

वो धूप है के

वो धूप है के चश्में तमन्ना में घाव है,
साया मेरी निगाह में जलता अलाव है।

कोई नही जो तोड़ के रख दे हवा के दाम,
हर आदमी के हाथ में कागज़ की नाव है।

जंगल को लौट जायें के अब हों ख़ला में गुम,
बस दो ही सूरतों में हमारा बचाव है।

अन्दर से देखता कोई उनकी तबाहियां,
बाहर तो कुछ घरों में बड़ा रख रखाव है।

यारो हम अपनी दौर की तारीख़क्या लिखें,
हर बाशऊर शख्स को ज़हनी तनाव है।

गिरने लगी है टूट के जां में फसीले शब्,
जज़्बात की नदी में गज़ब का बहाव है,

तलअत नज़ामें शम्स की बारीकियाँ न पूछ,
हर आँख में बस एक निह्थ्था अलाव है।

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