नए कपडे पहिन कर
आज हम,
इस गाँव के मेले में पहली बार आए हैं,
हुज़ूर अब्बा हमें उंगली थमाए हैं।
वो पहले से हमें,
मेले के बारे में बहुत समझा के लाये हैं।
हम उनके हुक्म की तामील में तो हैं,
मगरफिर भी,
शरारत, दायें बाएं साथ चलती है,
कभी मैं भागता हूँ और कभी
छोटि बहन आगे निकलती है।
बहुत से लोग हैं,
दंगल, तमाशे, खुर्दनी अश्या,
हजारों तरह की
रोजाना इस्तेमाल की चीज़ें,
मगर अपने लिए तो
बस यही,
दो चार दस उम्दा खिलौनों का तमाशा है,
हुज़ूर अब्बा ने हम दोनों की
हर जिद्द को,
नवाज़ा और तराशा है।
पुरानी एक मस्जिद
और थोडे फासले पर
एक छोटा सा शिवाला है।
इन्ही सब की बदौलत
आदमी का बोल बाला है।
यहाँ वरना
जो मेला साल में दो बार भरता है,
न जाने किन बहीमाना फरेबों से गुज़रता है.
सभी कुछ मुतमईन सा चल रहा है
फिर भी लगता है,
कही कुछ लोग आपस में झगड़ते हैं,
कहीं चुपचाप चलते
और कहीं इक दूसरे के पाँव पड़ते हैं।
मगर हम इन सभी से
बेन्याज़ा गुज़रते हैं।
हम अपनी खुशदिली का
भीड़ के चेहरे से
अंदाजा लगते हैं,
किसी भी आईने के सामने
ख़ुद को झलक भर देखते हैं,
खिलखिलाते हैं।
यूँही, अब्बा की उंगली थाम कर
जब आज हम मेले से लौटेंगे,
यो अम्मी से कहेंगे
"देखो ! अम्मी!
आज हम अपने लिए क्या लेके आए हैं।"
वो हम को देख कर सारे दुखों को भूल जायेंगी,
अजां का वक्त होगा
और हमें कुरआन की कोई नयी आयत सिखाएंगी।
हमारे सब खिलौने कुछ दिनों में रफ्ता रफ्ता
टूट जायेंगे,
के अगली बार जब इस गाँव में मेला इकट्ठा हो,
तो हम दोबारा आयेंगे।
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