मिटटी उडी तो छत ने अलग फ़ैसला किया,
हर ईंट को मकान की उससे जुदा किया।
मफ्लूज़ हो चुका था हवाओं का कुल निज़ाम,
इक शोर सा न जाने कहाँ से उठा किया।
शब् भर में सारे शहर के शीशे चटख गए,
जाते हुए ये बर्फ़ के मौसम ने क्या किया।
हम तो लिबास उतार के दरिया में हो लिए,
इक बादबां सा खून के अन्दर घुला किया।
तूने जो सब्ज़ बाग़ दिखाए थे गैर को,
तलअत तमाम उम्र मैं अंधा हुआ किया।
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