Saturday, May 16, 2009

रात किन जज़ीरों का

रात किन जज़ीरों का दर्द ले के आई है,
चांदनी की पलकों पर ओस थरथराई है,

शहर शहर फैला है, जंगलों का सन्नाटा,
जिस्म की फसीलों पर ख्वाहिशों की काई है।

धूप की परस्तिश में हमने बर्फ पहनी है,
ओस की तमन्ना में हमने आग खाई है।

मैने उस हवाघर में जब कभी कदम रक्खा,
शाम उतर के परबत से मुझमें आ समाई है।

है निगाह में रौशन सब्ज़ आँख का जादू,
हर दरख्त मंज़र है, हर दरख्त काई है।

दश्त के सफीरों का हश्र देख कर तलअत,
दूर तक समंदर पर खामुशी सी छाई है।
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यूँ खड़ा है सोच में डूबा

यूँ खडा है सोच में डूबा वो छोटा सा दरख्त,
जनता हो जैसे सब मंसब हवाओं का दरख्त।

इक बिरहना चीख सन्नाटे पे थी सू महीत,
गुम्बदे शब में खडा था दूर तक तन्हा दरख्त।

हांफता सेहरा ज़मी पर करवटेँ लेने लगा,
चार छे पत्तों पे अटका रह गया सूना दरख्त।

चाँद तो शायद उफ़ुक से लौट भी आता मगर,
बन चुका था अपने ही साये का ख़ुद साया दरख्त।

धड धड़ कर गिर पड़ा बारिश में सारा ही मकां,
बच गया आँगन में चीलों को सदा देता दरख्त।

शेअर तलअत ज़िंदगी से हम को यूँ हासिल हुए,
जैसे मिटटी से गिज़ा पता है जंगल का दरख्त।

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Friday, May 15, 2009

लिख के पत्थर पर मुझे

लिख के पत्थर पर मुझे कल शाम आवारा हवा,
दे गयी तुम को हज़ारों नाम आवारा हवा।


अब कोई खिड़की हमारे शहर में खुलती नही,
है बहुत इस शहर में बदनाम आवारा हवा।


सिर्फ़ कागज़ ही नहीं पत्थर भी उडते हैं यहाँ,
कोई जब लता है ज़ेरे दाम आवारा हवा।


क्या कहें जंगल में कितने पेड़ नंगे हो गए,
थक थका कर सो गयी जब शाम आवारा हवा।

खाक़ से खुर्शीद तक जो कुछ कहीं भी देखिये,
बस के है हर चीज़ का अंजाम आवारा हवा।

सब अगर मेरी तरहं सोचें तो शायद तरहां बने,
वरना अब होगी न हरगिज़ राम आवारा हवा।

चूम कर सब के लबों को दे गयीं तश्ना लबीं,
ले गयी रिन्दों के सरे जाम आवारा हवा।

देखना अब के हमारे शहर से गुज़री अगर,
कर न पायेगी कहीं आराम आवारा हवा।

फिर खराबे में भटकने पर है आमादा हयात,
फिर मुझे रोके है जेरे बाम आवारा हवा।

आज तलअत फिर हम उसको ढूँढने निकले तो हैं,
देखिये देती है क्या इनआम आवारा हवा।
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पी कर उदास शाम का,

पी कर उदास शाम का, नीला धुंआ दरख्त,
मंज़र को दे रहे हैं सुनहरी ज़बां दरख्त।

मुठ्ठी में बंद अज़ल ही से शायद के थी बहार,
खुलते ही बन गयी हैं मेरी उंगलियाँ दरख्त।

जंगल में परबरीदा हवाएं हैं खेमाज़न,
अब मौसमों को ढूँढने जायें कहाँ दरख्त।

ख़ुद से डरा हुआ है तो इनको भी यूँ न देख,
क्या जाने किस ख़याल को दे देँ ज़बां दरख्त।

इम्शब फिर उस खंडर में चरागाँ की है ख़बर,
अंधे कुएं के पास उगा है जहाँ दरख्त।

नीचे नदी के पार उफुक पर झुकी है शाम,
ऊपर ज़रा सा चाँद है और दरमयां, दरख्त।

तलअत ज़मीं पे फिर कोई पत्ता टपक पड़ा,
सुनते कुछ और वरना मेरी दास्ताँ दरख्त।
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टपकता है मेरे अन्दर लहू

टपकता है मेरे अन्दर लहू जिन आसमानों से,
कोई तो रब्त है उनका ज़मीं की दस्तानों से।

धुंआ उठने लगा जब संगे मरमर की चटानो से,
सितारों ने हमें आवाज़ दी कच्चे मकानों से।

समंदर के परिंदों साहिलों को लौट भी जाओ,
बहुत टकरा लिए हो तुम हमारे बादबानोँ से

यह माना अब भी आंतों में कही तेजाब है बाकी,
निकल कर जाओगे लेकिन कहाँ बीमारखानों से।

वो अन्दर का सफर था या सराबे आरजू यारो,
हमारा फासला बढता गया दोनों जहानों से।

लचकते बाजुओं का लम्ज़ तो पुरकैफ़ था तलअत,
मगर वाकिफ न थे हम पत्थरों की दस्तानों से।

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घाट जब उतरी हमारी

घाट कब उतरी हमारी नाव भी,
धुल गए जब साहिलों के चाव भी।

नद्दियों तुम भे ज़रा दम साध लो।
भर चुके कच्चे घडों के घाव भी।

आरज़ू ग़र्काब होती देख कर,
बह गये कच्चे घडों के घाव भी।

मैं तो मिटटी का खिलौना ही सही,
तुम मेरी खातिर कभी चिल्लाओ भी।

भोग ही लेते किए की हम सज़ा,
काश चल जाता हमारा दाव भी।

बज़्म से जाना ही था वरना हमें,
क्या बुरा था आप का बर्ताव भी।

तुम यहीं सर थाम कर बैठे रहो,
शहर में तो हो चुका पथराव भी।

यह ठिठुरती शाम यह शिमला की बर्फ।
दोस्तों! जेबों से बाहर आओ भी।

तन बदल कर हमसे तलअत ने कहा,
क्यों खडे हो अब यहाँ से जाओ भी।

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