Saturday, May 16, 2009

रात किन जज़ीरों का

रात किन जज़ीरों का दर्द ले के आई है,
चांदनी की पलकों पर ओस थरथराई है,

शहर शहर फैला है, जंगलों का सन्नाटा,
जिस्म की फसीलों पर ख्वाहिशों की काई है।

धूप की परस्तिश में हमने बर्फ पहनी है,
ओस की तमन्ना में हमने आग खाई है।

मैने उस हवाघर में जब कभी कदम रक्खा,
शाम उतर के परबत से मुझमें आ समाई है।

है निगाह में रौशन सब्ज़ आँख का जादू,
हर दरख्त मंज़र है, हर दरख्त काई है।

दश्त के सफीरों का हश्र देख कर तलअत,
दूर तक समंदर पर खामुशी सी छाई है।
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1 comment:

वीनस केसरी said...

बेहतरीन गजल है
पढ़वाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

वीनस केसरी