यूँ खडा है सोच में डूबा वो छोटा सा दरख्त,
जनता हो जैसे सब मंसब हवाओं का दरख्त।
इक बिरहना चीख सन्नाटे पे थी सू महीत,
गुम्बदे शब में खडा था दूर तक तन्हा दरख्त।
हांफता सेहरा ज़मी पर करवटेँ लेने लगा,
चार छे पत्तों पे अटका रह गया सूना दरख्त।
चाँद तो शायद उफ़ुक से लौट भी आता मगर,
बन चुका था अपने ही साये का ख़ुद साया दरख्त।
धड धड़ कर गिर पड़ा बारिश में सारा ही मकां,
बच गया आँगन में चीलों को सदा देता दरख्त।
शेअर तलअत ज़िंदगी से हम को यूँ हासिल हुए,
जैसे मिटटी से गिज़ा पता है जंगल का दरख्त।
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