Friday, May 15, 2009

पी कर उदास शाम का,

पी कर उदास शाम का, नीला धुंआ दरख्त,
मंज़र को दे रहे हैं सुनहरी ज़बां दरख्त।

मुठ्ठी में बंद अज़ल ही से शायद के थी बहार,
खुलते ही बन गयी हैं मेरी उंगलियाँ दरख्त।

जंगल में परबरीदा हवाएं हैं खेमाज़न,
अब मौसमों को ढूँढने जायें कहाँ दरख्त।

ख़ुद से डरा हुआ है तो इनको भी यूँ न देख,
क्या जाने किस ख़याल को दे देँ ज़बां दरख्त।

इम्शब फिर उस खंडर में चरागाँ की है ख़बर,
अंधे कुएं के पास उगा है जहाँ दरख्त।

नीचे नदी के पार उफुक पर झुकी है शाम,
ऊपर ज़रा सा चाँद है और दरमयां, दरख्त।

तलअत ज़मीं पे फिर कोई पत्ता टपक पड़ा,
सुनते कुछ और वरना मेरी दास्ताँ दरख्त।
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