Friday, May 15, 2009

घाट जब उतरी हमारी

घाट कब उतरी हमारी नाव भी,
धुल गए जब साहिलों के चाव भी।

नद्दियों तुम भे ज़रा दम साध लो।
भर चुके कच्चे घडों के घाव भी।

आरज़ू ग़र्काब होती देख कर,
बह गये कच्चे घडों के घाव भी।

मैं तो मिटटी का खिलौना ही सही,
तुम मेरी खातिर कभी चिल्लाओ भी।

भोग ही लेते किए की हम सज़ा,
काश चल जाता हमारा दाव भी।

बज़्म से जाना ही था वरना हमें,
क्या बुरा था आप का बर्ताव भी।

तुम यहीं सर थाम कर बैठे रहो,
शहर में तो हो चुका पथराव भी।

यह ठिठुरती शाम यह शिमला की बर्फ।
दोस्तों! जेबों से बाहर आओ भी।

तन बदल कर हमसे तलअत ने कहा,
क्यों खडे हो अब यहाँ से जाओ भी।

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