शोर, सन्नाटे के बीजों को
ज़मीं पर रौंदता है
और कहता है की "जाओ !
जिस तरहां मैं इस जगह लाया गया हूँ,
तुम भी जाकर
अपनी कोई दूसरी दिनिया बसाओ!'
और सन्नाटा,
ज़मीं का दर्द सीने से लगाये
लड़खड़ा कर डोलता है
खुरदरे कम्बल से
इक खामोश पैकर बोलता है ,
मिल्ताज़ी आंखे
की जैसे ज़र्द चेहरा पूछता हो,
"शोर भाई!
हम तेरे कहने पे
अपना धागा धागा साथ ले कर जा रहे हैं ।
बाद में,
लोगो को लफ्जों की ज़रूरत आ पडी तो
तुम अकेले क्या करोगे ?"
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