Sunday, May 17, 2009

बिस्तर की हर शिकन पे

बिस्तर की हर शिकन पे हवा का गिलाफ़ था,
वरना मेरा वुजूद तो पहले ही साफ़ था,

चारों तरफ़ थी गूंजती रेलों की पटरियां,
मैं जिन के दरमियान ख़ुद अपने ख़िलाफ़ था।

तुझ बिन हमारे पाँव को रस्ता न मिल सका,
पानी तो उस नदी का बड़ा पाक साफ़ था।

शीशे ब फैजे तश्ना लबीं टूटते रहे,
रिन्दों का मैकदे से अजब इन्हाराफ़ था।

पीते थे और घर का पता पूछते न थे,
बस इक यही गुनाह तो हम को मुआफ़ था,

सुलझा रहे थे लोग सब आपस की उलझने,
वरना जहाँ में कौन किसी के ख़िलाफ़ था।

मुझ को उठा के गोद मैं कैसा हुआ बलंद,
ओढे हुए बुजुर्ग जो आया लिहाफ़ था।

तलअत ग़ज़ल के नाम को पहुंचा तो किस तरहं,
यह आदमी तो एक अधूरा ज़िहाफ़ था।

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