Sunday, June 28, 2009

कबूतरों की अर्ज़दाश्त

पतंगबाजों नवाबज़ादो
यह लखनऊ है,
यहाँ की तहज़ीब दोस्तों !
इक तुम्हारी मोरास ही नही है
हमारा भी नाम
इस की तारिख में लिखा है।

गए वो शाही जो हम गरीबों को
आए दिन नोच खा रहे थे
गए शिकारी जो नित नए जाल के ज़रिये
यहाँ वहां सब को उंगली उंगली नचा रहे थे।
मगर हमारी उड़ान भरने की हर सयी पर
हज़ार तरहं की बंदिशें आज भी लगी हैं
मगर जो एक आस्मां हमारे लिए बना था
वो रफ्ता रफ्ता सिमट रहा है
कि आदमी आदमी के हाथों
पतंगबाजी में कट रहा है।

हमारा क्या और हमारी परवाज़ की
फ़ज़ाओं पे दस्तरस क्या?
मगर वो सब लोग जो हमें
अमन के पयंबर सा कह गए हैं
न जाने किस राह रह गए हैं।
हमारे डेरे भी उन बुजुर्गों के साथ ही
वक्त की नदी के पार बह गए हैं।

नयी पुरानी सभी तरहं की इमारतों में
हम इन दिनों एक साथ जीने की
कोशिशों में लगे हुए है।

हमारा सब रंगों नस्ल का इम्तियाज़ भी,
कब का मिट चुका है,
कि हम फ़कत आदमी के दुःख में
उदास आखों जागे हुए हैं ।

कोई इलाका हो, शहर हो मुल्क हो या जज़ीरा
हमारा पैगाम तो सदा अमनो - अश्ती था,
है और रहेगा।
हमारा हर कहब आदमी की
सलामती के लिए बना है बना रहेगा।

हमारा जंगल से कुछ नही वास्ता
अगर हो भी तो अमे इल्म है
कि हम कुर्रा ऐ ज़मीं पर बगैर इन्सां कहीं भी ज़िंदा न रह सकेंगे।
हमारे हक़ में हदों का जिस तरहां का तअय्युन
भी लोग चाहे,
हम उन हदों की ख़िलाफ़ वर्जी
किसी भी सूरत नहीं करेंगे ।
तुम्हारे बच्चों की खैरियत की दुआएं
अपने परों पे लिख कर तमाम
सम्तों में आजतक हम उडा किए है उड़ा करेंगे।
पतंगबाजों नवाबजादों,
यह लखनऊ है।
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