Saturday, July 4, 2009

शायरी

मैं जब जब
अपने अन्दर की आंखें खोल रहा होता हूँ,
चारों ओर
मुझे बस एक उसी का रूप नज़र आता है,
नहीं चाहता कुछ भी कहना
लेकिन एक अजीब कैफ़ीय्यत,
साँस-साँस इज़हारे तअल्लुक
यादें, आंसू, लोग, ज़मीं, आकाश, सितारे
जैसे कोई बहरे फ़ना में
आलम आलम हाथ पसारे,
और मदद के लिए पुकारे
और वह सब जो
पीछे छूट चुका होता है
या आगे आने वाला होता है
जाने कैसे?
सन्नाटे की दीवारों को तोड़ के
अपनी आप ज़बां में ढल जाता है,
दूर अन्देरे की घाटी में
एक दिया सा जल जाता है।

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