Saturday, June 27, 2009

चक्रव्यूह

दोस्त मेरे!
कृष्न का माना कि तुमने नाम सुन रखा है
लेकिन,
कंस तो कोई कभी मारा नहीं है,
और न तुमने
द्रौपदी को लाज लुटने से बचाया,
पूतना दाई, बकासुर और कालीनाग के
किस्सों का भी गीता से गहरे में तआल्लुक है,
किसी ने आज तक तुमको बताया?
जिस को दुर्योधन समझते हो
कभी उस के घरेलू यज्ञ में शिरकत ही की
या झूठे पत्तल भी उठाये?
तीन मुठ्ठी सत्तुओं की चाह में
क्या तुम सुदामा के कभी नज़दीक आए ?

और भी कितना ही कुछ
जो "है नहीं है" से परे
लेकिन हमारी कौम के
रूहों - रगों - रेशा ज़मीं के चप्पे चप्पे से जुडा है,
कृष्न जिसके नाम से है और जो ख़ुद कृष्न का पैगम्बर है,
जाविदाँ है
क्यों की यह हिन्दोस्तां है।
कृष्न का माना कि तुमने
नाम सुन रख्खा है लेकिन,
दोस्त मेरे!
और इस पर भी अगर गांडीव उठाने पर तुले हो,
तो ज़रा सोचो,
कि अर्जुन की तरहं जिस जंग में तुम आ खडे हो,
व्यूह चक्कर इस जगह
किन अजनबी राहों से हो कर आ रहा है?

सर बकफ़ हो कर निकल पड़ने में कुछ लगता नहीं है,
क्यों के जिसको व्यूह की रचना समझ में ही न आए
वह महाभारत के पन्नो पर
ज़्यादा से ज़्यादा एक अभिमन्यू रहेगा।

हा! अगरचे! कृष्न को तो उस पे भी
तुम को अकेला देख कर
रथ से उतरना ही पडेगा,
और तुम्हारे रथ का ही
टूटा हुआ पहिया उठा कर
वह तुम्हारी ही हिफाज़त ख़ुद करेगा।
क्यों के तुम अर्जुन भाकेय्ही बन न पाओ
कृष्न तो अपनों की खातिर
कृष्न ही बनकर लडेगा।
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