Friday, June 26, 2009

सर्द रौ

सर्द रौ पिछले कई दिन से,
शुमाली हिंद को घेरे हुए है,
सोचता हूँ
वो शुमाली हिंद हो या
खित्ता ऐ सरतान का छोटा सा इक तनहा जज़ीरा,
एक दिन यह सर्द रौ
सारी ज़मीन को घेर लेगी।
और हम सब
धूप में झुलसे हुए चेहरे उठाये,
बर्फ पड़ने की दुआएं मांग कर रूपोश होंगे।

मैं अभी कुछ देर पहले
शहर की सड़कों पे आवारा भटकता फिर रहा था,
मैने देखा
निस्ब शब् का चाँद जाने किस जगह जा कर छिपा है।
कुमकुमों का शहर अँधा हो गया है।
शहर का माहौल, जंगल की फज़ा सब
एक भूरी धुंध में लिपटे हुए हैं,
असमान हद्दे नज़र तक मुन्ज्मिद है,
साया साया दम बखुद है।
सिर्फ़ कुछ नक्काल चीखें हैं
जो रह रह कर फज़ा में गूंजती हैं,
खोखली सम्तेँ
जिन्हें सुन कर सितारों को सयाही बाँटती हैं,
हब्स बर्फानी इलाकों का
नशेबों में उतर कर रेंगता हैं।
तुम हवा का जायका चखने से पहले
अपने अन्दर खून की मिकदार जांचो।
खून की रफ़्तार तो बेशक वही हैं
दिल धड़कने का मगर अंदाज़
पाओगे के पहले से जुदा हैं।
बंद कमरों के सब आतिशदान खाली हो चुके हैं
अब वहां मुर्दा हवा का खौल हैं
या आग का बेजान चेहरा।
एक लामहदूद गहराई की खंदक
मुझ पर मुंह बाये खड़ी है
बात जो मैने उठाई थी
वो मुझ से भी बड़ी है।
सर्द बिस्तर
मेरे हर मूऐ बदन में ज़हर सा बोनी लगा है।
ज़ह्न में उड़ती हुयी चिन्गारियों का शोर है
सोचता हूँ
क्या फकत अखबार के अव्राक उलटने से
ज़मीरों का सफ़र तय हो सकेगा
ज़ायचों और ज़ायचों के दरमियाँ जो,
एक बे हममँम खला है
क्या कोई भी हाथ उसे पुर कर सकेगा
सर्द रौ का
रीढ़ की हड्डी से जब सीधा सा रिश्ता हो
तो फिर हिज्याँ गोई क्या करेगे?

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