Monday, May 4, 2009

उसे भी चाहनां घर से भी कामरां होना,

उसे भी चाहना घर से भी कामरां होना,
कहाँ चराग़ सा जलना कहाँ धुआं होना।

लहू में जाग उठ्ठी है फिर आतिशे इम्कां
हरेक ज़ख्म को लाज़िम है जाविदां होना।

हम एक बुत की परस्तिश में यूँ हुए पत्थर,
ज़बीं का नाम हुआ संगे आसतां होना।

नदी की राह में सहरा न था कोई वरना,
किसे था ज़र्फ़ समंदर की दास्ताँ होना।

मेरा तो होना न होना सब एक सा ठहरा,
हुआ है खूब मगर आप का यहाँ होना।

हमें भी छू के गुज़रती तो है हवा लेकिन,
यह हाथ भूल चुके हैं अब उंगलियाँ होना,

चटख गया है बहारों का आसमाँ तलअत,
गुलों ने सीख लिया जब से तितलियाँ होना।
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