Monday, May 4, 2009

पूछते हो तुम की हम पर

पूछते हो तुम के हम पर आस्मां कैसा रहा,
प्यास पर गोया कि पानी का निशां कैसा रहा।

एक चौखट चार ईंटों पर खड़ी हिलती रही,
सर झुकाने को हमारा आस्तां कैसा रहा।

अपनी अपनी ज़िंदगी थी और अपनी अपनी मौत,
अब के अपने शहर में अमनों अमां कैसा रहा।

मुद्दतों से हूँ ज़माने से किनारा कश मगर,
तुम जो मिल जाओ तो पूछूं सब कहाँ कैसा रहा।

रात अपने चोर दरवाज़े पे जब अस्तक हुई,
इक हयूला सा हमारे दरम्यां कैसा रहा।

हासिले सहरा नवरदी और कुछ होता तो क्यूं?
और इक मंज़र पसे मन्ज़र निहाँ कैसा रहा।

हर नफस यूँ तो अज़ल से था अबद का इख्तिलात,
इक शिकस्ता पल बिखर कर दरमियाँ कैसा रहा।

ज़ह्न से पैदा हैं तलअत नित नए सूरज ख़्याल,
धूप कैसी भी थी लेकिन सायेबां कैसा रहा।
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