Saturday, April 25, 2009

न जागने की इजाज़त न हमें सोने की,

न जागने की इजाज़त न हमें सोने की,
कहाँ से बात उठायें अज़ान होने की।

तमाम घाट के पानी पे फिर गई काई,
जब आयी बारी हमारी लिबास धोने की।

हम उसके शहर के रंगों से चुप गुज़र जाते,
यह किसने बात चला दी हमें भिगोने की।

कहाँ धुँए की परस्तिश में जा फंसे यारो,
यही तो रुत थी ख़यालों में आग बोने की।

हसारे ज़ात के जिन्दानियों! उठो ! जागो,
यहाँ किसी को इजाज़त नहीं है सोने की।

अभी  तो शिव के गले  से वो विष नहीं उतरा
तुम्हें पड़ी है समंदर को फिर बिलोने की ।
वो मेरी पीठ पर रख कर मेरा ही सर बोला,
किसे पड़ी है किसी की सलीब ढोने की 

मैं लम्स लम्स बिखरता चला गया तलअत,
मिली जो रात उसे रूह में समोने की।
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1 comment:

सर्वत एम० said...

तलअत साहब, अच्छी गजलें कह रहे हैं आप. एक दरख्वास्त है, अपना नाम वैसा ही लिखिए जैसा मैं ने लिखा है. आप तलत लिखते हैं और बहर से शेर खारिज हो जाता है. गुस्ताखी मुआफ.