Saturday, April 25, 2009

जब भी हम कुछ देर सुस्ताने लगे हैं.

जब भी हम कुछ देर सुस्ताने लगे हैं,
शहर पर आसेब मंडराने लगे हैं।

किस का साया आ पड़ा सिहने चमन पर,
क्यारी क्यारी फूल मुरझाने लगे हैं।

आप की उजली हंसी जब भी सुनी है 
मंदिरों  के नाम याद आने लगे हैं 

अब यहाँ कोई नहीं सुनता किसी की,
अपना अपना राग सब गाने लगे हैं।

किस ने चौराहे पे क्या टोना किया है,
आते जाते लोग चिल्लाने लगे हैं।

फिर ज़मीं की नाफ़ टेढी हो चली है,
फिर समंदर झूम कर गाने लगे हैं।

आस्मां लोहे का छल्ला है जिसे हम,
हर छ्टी उंगली में पहनाने लगे हैं।

नींद अब तलत हमें आए न आय,
अधखुली आंखों में ख्वाब आने लगे हैं।
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