देखो तो हमें दिल ने कैसी ये सज़ा दी है,
आइना वहीं पर है दीवार हटा दी है।
अल्फाज़ के जादू ने सर काट दिया बन का,
तहरीर यह मिटटी की किस शै ने जला दी है।
छूते ही तुम्हें हम तो अन्दर से हुए खाली,
बर्तन ने कहीं यूँ भी पानी को सदा दी है।
अब लम्स अंधेरे की ईंटों का है मुत्कल्लम,
नाखूं ने मेरे बढ़ कर हर बात बढ़ा दी है।
लग जयेंगी आखें भी इक रोज़ किनारे से,
खुशबू तो तेर ख़त की दरिया में बहा दी है।
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