Friday, May 15, 2009

लिख के पत्थर पर मुझे

लिख के पत्थर पर मुझे कल शाम आवारा हवा,
दे गयी तुम को हज़ारों नाम आवारा हवा।


अब कोई खिड़की हमारे शहर में खुलती नही,
है बहुत इस शहर में बदनाम आवारा हवा।


सिर्फ़ कागज़ ही नहीं पत्थर भी उडते हैं यहाँ,
कोई जब लता है ज़ेरे दाम आवारा हवा।


क्या कहें जंगल में कितने पेड़ नंगे हो गए,
थक थका कर सो गयी जब शाम आवारा हवा।

खाक़ से खुर्शीद तक जो कुछ कहीं भी देखिये,
बस के है हर चीज़ का अंजाम आवारा हवा।

सब अगर मेरी तरहं सोचें तो शायद तरहां बने,
वरना अब होगी न हरगिज़ राम आवारा हवा।

चूम कर सब के लबों को दे गयीं तश्ना लबीं,
ले गयी रिन्दों के सरे जाम आवारा हवा।

देखना अब के हमारे शहर से गुज़री अगर,
कर न पायेगी कहीं आराम आवारा हवा।

फिर खराबे में भटकने पर है आमादा हयात,
फिर मुझे रोके है जेरे बाम आवारा हवा।

आज तलअत फिर हम उसको ढूँढने निकले तो हैं,
देखिये देती है क्या इनआम आवारा हवा।
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